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शान्तिजिन स्तवन
( १०७ )
सतरह से हो तीर्थंकर देवक, बिहु पासे नमु वारणै । गज ऊपर हो चढिया माय ने वापक, मूरति सेवा कारणै ॥ ४ ॥ अति ऊँचा हो सो है श्रीकारक, दंड कलश ध्वज लहल है । धन्य जीव्यो हो तसु तो परमाणक, यात्रा करी मन गहग है ॥ ५ ॥ जेसलमेर हो पनरै छत्तीसक, फागुण सुदि तीज जस लियो । खरतर गच्छ हो जिन समुद्र सुरिन्दक, मूल नायक प्रतिष्ठियो । ६ । हित जाण्यो हो श्री शांति जिणंदक, तूं साहिब छह माहरउ । समयसुंदर हो कहै बेकर जोड़क, हूं सेवक छु ताहरउ ॥ ७ ॥ श्री शान्ति जिन स्तवनम्
सुंदर रूप सुहामणो, श्री शान्ति जिणेसर सोहइ रे । त्रिभुवन र राजियउ, प्रभु सुरनर ना मन मोहइ रे ॥ १ ॥ समवसरण सुरवर रच्यउ, तिहां बैठा श्री अरिहंतो रे ।
भविण नै देखा, भय भंजण भगवंतो रे || २ || त्रिve छत्र सुरवर धर, चिह्न दिशि सुर चामर ढालइ रे । मोहन मूरति निरखतां, प्रभु दुरगति नां दुख टालइ रे ॥ ३ ॥ आज सफल दिन माहरउ, श्राजपाम्यर त्रिभुवन राजो रे । आज मनोरथ सवि फल्या, जउ भेट्या श्री जिनराजो रे ॥ ४ ॥ बेकर जोड़ी बीनवु, प्रभु वीनतड़ी अवधारो रे । मुझ ऊपर करुणा करो, आवागमन निवारो रे ॥ ५ ॥ चिन्तामणि सुरतरु समउ, जगजीवन शांति जिणंदो रे । समयसुंदर सेवक भइ, मुझ आप परमाणंदो रे ॥ ६ ॥
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