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श्री ज्ञान पंचमी वृहत्स्तवनम्
(२३६ )
इण करणी रे करतां न्यान आराधियइ,
न्यान दरसण रे उत्तम मारग साधियह ॥ साधियह मारग एणि करणी, न्यान लहियइ निरमलउ । सुरलोक नइ नर लोक माहइ, न्यानवंत ते आगलउ ।। अनुक्रमइ केवल न्यान पामी, सासतां सुख ते लहह । जे करइ पांचमि तप अखंडित, वीर जिणवर इम कहइ ॥१६॥
॥ कलश ॥
गउड़ी राग-- इम पंचमी तप फल प्ररूपक, वर्द्धमान जिणेसरो । मई थुण्यउ श्री भगवंत अरिहंत अतुलबल अलवेसरो ।। जयवंत श्री जिण चंद सूरज, सकलचंद नमंसिउ । वाचनाचारिज समय सुन्दर, भगति भाव प्रसंसिउ ॥२०॥
इति श्री ज्ञानपंचमीतपोविचारगर्भितं श्रीमहावीरदेववृहत्स्तवन सम्पूर्ण कृतं लिखितं च संवत १६६६ वर्षे ज्येष्टे ज्ञानपंचम्यां ॥
ज्ञान पंचमी लघु स्तवनम् पांचमि तप तुमे करो रे प्राणी, निरमल पामो ज्ञान रे। पहिलु ज्ञान नइ पाछह किरिया, नहिं कोई ज्ञान समान रे पां०१॥
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