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गहूँली गीतम्
(३४७ )
गीतारथ गुण ना दरिया रे, गुरु समता रस ना भरिया रे। पंच सुमति गुपति सुं परिवरियारे, भवसागर सहजे तरिया रे । मु.।४। गुरु नुपाटिओ मोहन गारो रे,सहु संघनइ लागे छ प्यारोरे। गुरु उपदेश द्यइ मुख वारु रे,भवि जीव नइ भव निधि तारु रे। मु.॥५॥ गुरु नी आंखडली अणियाली रे,जाणइ ज्ञान नी सेरी निहालीरे। चार विषधर ना विष टाली रे, वस कीधा शिव लटकाली रे। मु.।६। गुरु नुवंदन ते शारद चंद रे, जाणे मोहन वेलि नो कंद रे। गुरु आगे तेजें आनंद रे, हूं तो प्रणमु अति आनंद रे । मु./७/ इम गहूंली माहे गाई रे, रयण अमुक थी सवाई रे। इम समकित थी चित लाइ रे, सहु संघ मिली नई वधाई रे । मु.८। गुरु नी वाणी ते अमिय समाणी रे, जाणी मोक्ष तणी नीसाणी रे। इम विनय सँ नमो अति भवि प्राणी रे,इम समयसुंदर वदे वाणी ।मु.।
खरतर गुरु पट्टावली प्रणमी वीर जिणेसर देव, सारइ सरनर किन्नर सेव । श्री खरतर गुरु पट्टावली, नाम मात्र पभणु मन रली ॥१॥ उदयउ श्री उद्योतनसूरि, वर्द्धमान विद्या भर पूरि। . सूरि जिणेसर सुरतरु समो, श्री जिनचंद्र सूरीसर नमउ ॥२॥ अभयदेव सूरि सुखकार, श्री जिनवल्लभ किरिया सार । युगप्रधान जिनदत्त सूरिंद, नरमणि मंडित श्रीजिनचंद ॥३॥
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