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मगर वैराग्य
( १२६ )
नव भव कउ नेह न मूक्यउ, चालि गड़ गिरनारी हो । ने० |१|
नेमि शृंगार वैराग्य
कृपा अमूलिक कांचली रे,
नेमिजी तउ सखर महाव्रत साड़ी रे लाल । मुन नेमि प्रीतम पहिरावी । चूनड़ी रे ने०,
सील सुरंगी चूनंड़ी
आणी मुंनइ श्रोढाड़ी रे | लाल ० | १ | जिन थाज्ञा सिर राखड़ी रे ने०,
तर काने डल जिनवाणी रे । लाल० । जिन गुण गान गलइ दूलड़ी रे ने०,
तर मुझ मन अधिक सुहाणी रे | लाल०|२| भाले तिलक सो भाग नौ रे ने०,
तउ जीव जतन कर चूड़ी रे | लाल ० | हार हियै वैराग नो रे ने०, तउ राजुल कहह हुं रूड़ी रे | लाल ० | ३ | जोग मारग में वे मिल्या रे ने०,
तउ नेम राजुल सुख पावउ रे । लाल ० | शृङ्गार ने वैराग नो के ने०,
तर समयसुन्दर गुण गावउ रे । लाल ०|४|
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