________________
महोपाध्याय समयसुन्दर
(८१)
काशे उडयितुमसमर्थोपि कीटिका किं स्वकीयेन चारेण न चरति ? चरन्त्येव, चरन्ती न केनापि वार्येत । अतो जिमयोग्यस्य सद्भूतस्य सम्पूर्णस्य स्तवस्य करणशक्त रभावेऽपि भक्तिभरप्रेरितस्य मम स्वकीयशक्तरनुसारेण स्तोत्रकरणे प्रवृत्तस्य दोषो नाशङ्कनीयस्तदेवाऽऽह-"
व्याख्या का चातुर्य देखना हो तो देखें, मेघदूत प्रथम श्लोक की व्याख्या।
कवि ने केवल संस्कृत-प्राकृत भाषा-प्रथित ग्रन्थों पर ही टीका नहीं की है अपितु 'रूपकमाला' जैसे भाषा काव्य पर भी संस्कृत में अवचूरि की रचना की है। वस्तुतः कवि कृत अवचूरि पठन योग्य है।
औपदेशिक और कथासाहित्य कवि स्वयं तो सफल प्रचारक और उपदेशक थे ही । 'अन्य श्रमण भी प्रचार और उपदेश में सफलता प्राप्त करें' इसी विचारधारा से कवि ने औपदेशिक और कथा साहित्य की सृष्टि की।
व्याख्याता का 'जनरञ्जन' करना सर्वप्रथम कर्तव्य है और जनरञ्जन तब ही संभव है जबकि उपदेश के बीच-बीच में प्रासंगिक और प्रौपदेशिक श्लोकों की छटा बिखेरी जाय और चुलबुले चुटकले या कहानियों का जाल बिखेरा जाय ।
गाथा-सहस्री इसी ओदेपशिक और प्रासंगिक श्लोकों की पूर्ति-स्वरूप ही बना है इसमें अनेकों ग्रन्थों के चुने हुये फूलों के समान सौगन्ध्य बिखेरते हुये उत्तम-उत्तम पद्यों का चयन किया गया है; और वे भी सब ही विषयों के हैं। इससे कवि की भ्रमर की तरह चयन शक्ति का श्रेष्ठ परिचय प्राप्त होता है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org