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महोपाध्याय समयसुन्दर
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साथ ही सिन्ध, मारवाड़, मेड़ता, मालव, गुजरात आदि के प्रान्तों की प्रसिद्ध-प्रसिद्ध देशीयें, रागिनियाँ, ख्याल आदि सभी इसमें प्राप्त हो जायंगे।गेय-प्रेमी इस सङ्गीत-पद्धति से अत्यन्त ही प्रसन्न हो उठेगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उदाहरण स्वरूप जैसलमेर मण्डन पार्श्वनाथ का स्तवन ही देखिये, जो सत्रह रागों में खचित है--(पृ० १४६)। __ऐतिहासिकों की दृष्टि से-तीर्थमालाएँ (पृष्ठ ५४ से ६०)
और तीर्थों के 'भास', तीर्थों के स्तवन', घंघाणी पार्श्वनाथ स्तवन, सेत्रावा स्तवन, राणकपुर स्तव, युग प्रधान जिनचन्द्रसूरिजिनसिंहसूरि-जिनराजसूरि-जिनसागरसूरि गीत और संघपति सोमजी वेलि मादि कृतियाँ बहुत ही महत्व रखती हैं । यदि अनुसन्धान किया जाय, तो हमें बहुत कुछ नये तथ्य और नई सामग्री प्राप्त हो सकती है।
भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो यह संग्रह महत्व का है ही। १७वीं शताब्दी को प्राचीन-हिन्दी, मारवाड़ी, गुजराती, सिन्धी
आदि भाषाओं के स्वरूप को समझने के लिये और शब्दों के वर्गीकरण के लिये यह अत्यन्त सहायक होगा।
संस्कृत और प्राकृत के विद्वानों को भी उनके काल को मनोविनोद में व्यतीत करने के लिये इसमें प्रचुर सामग्री प्राप्त होगी। पहले-प्राकृत भाषा के काव्यों को ही लीजिये___स्तम्भन पाश्वनाथ स्तोत्र (पृ. १५५), नेमिनाथ स्तव (पृ० ६१५), पाश्वनाथ लघुस्तव (पृ० १८५), यमकबद्ध पार्श्वनाथ लघुस्तव (पृ०६१८),
समसंस्कृत-प्राकृत भाषा में-पार्श्वनाथाष्टक (पृ. १६६)। सम हिन्दी-संस्कृतभाषा में पार्श्वनाथाष्टक (पृ. १८६)।
संस्कृत भाषा में-शान्तिनाथ स्तव (पृ० १०३), चतुर्विशति तीर्थकर गुरुनाम गर्भित पार्श्वनाथ स्तव (पृ० १८४), पार्श्वनाथ
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