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महोपाध्याय समयसुन्दर
के महा महर्षि और महासतियों के स्वाध्याय और गीत प्राप्त होंगे। इन दोनों के आधार पर ही उपदेशक यदि चाहे, तो कुछ दिन या मास तो क्या, वर्षों व्यतीत कर सकता है और सफलता सह उपदेशों के साथ अपने धर्मों का प्रचार भी कर सकता है।
उपदेशक-पदों की दृष्टि से-मुमुक्षुओं के त्याग-वैराग्य में वृद्धि हो एवं प्रसंग आने पर वे क्रोध-कषाय अदि शत्र भों से दूर रहकर आत्मगुण प्राप्ति के भिन्न-भिन्न साधनों द्वारा आत्मोन्नति कर सकें, इसके लिये कविवर ने पद-रचना कर पर्याप्त उपकार किया है। इस प्रकार के पदों का स्वाध्याय करने वाले की आत्मा कुव्यापारों से बचकर सदाचार की ओर अग्रसर होती है। इस प्रकार के गीतों में भिन्न-भिन्न राग-रागनियों के चमत्कार के साथ-साथ बोध देने बाली चेतावनी भी दी गई है । क्रोध, मान, माया, लोभ, निन्दा, स्वार्थ, मात्सर्य इत्यादि नाना विषयों के परिहार के साथ-साथ जीव प्रतिबोध, पारकी होड़ निवारण, घड़ी लाखीणी, उद्यम, भाग्य, घड़ियाली, जीवदया, मरण-भय सन्देह, वीतराग-सत्यवचन, पठनप्रेरणा, क्रिया-प्रेरणा, दान, शील, तप, भावना, स्वर्ग प्राप्ति, नरक प्राप्ति आदि नाना प्रकार के विषयों पर पदों की रचना कर कवि ने सुन्दरतम भाव व्यक्त किये हैं।
क्रियावादियों की दृष्टि से-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि आप ज्ञान के प्रबल पक्षपाती और उपासक थे आपकी दीर्घायु ज्ञानोपार्जन, ग्रन्थप्रणयन, स्वाध्याय, पठन-पाठन व धर्मोपदेश में व्यतीत हुई । आप ज्ञान के साथ-साथ क्रिया को भी बड़े आदर पूर्वक करते रहने का मनोभाव सर्वत्र व्यक्त करते रहे हैं । तपश्चर्या, पाराधन आदि स्तवनों से यह स्पष्ट है । पञ्चमी स्तवन में "क्रिया सहित जो ज्ञान, हुवइ तो अति परधान । सोनो ने सुरो ए, सङ्घ दूधे भरथो ए" कहकर क्रिया की महत्ता स्वीकार की है। क्रिया प्रेरक स्वाध्याय में क्रिया की सजीवता देखिये :
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