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( ७४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर पञ्चमहाकाव्य, खण्डप्रशस्ति, चम्पू , मेघदूत, महाभारत आदि ग्रन्थों के अध्येता और अध्यापक भी थे। निष्णात होने के कारण ही ऐसे पादपूर्तिरूप और स्तोत्रात्मक स्वतन्त्र काव्यों की वे रचना कर सके । इनके काव्यों में शब्दमाधुर्य, लालित्य और ओज के साथ अलङ्कारों का पुट आदि सब ही गुण प्राप्त हैं। इनके काव्य रसाभिव्यक्ति के साथ ही अन्तस्तलस्पर्शी भी हैं। इनकी आश्चर्यकारी रचनाकौशल को देखिये:
"भक्त्या जे. 'हं जरागणमदानन्दादयध्वंसकं, लक्षमीदीप्रतन दयोगुणभुवं तातां सतां देव रम् । कृष्णस्फीतरुचिं नरा नमत भो जीवामतीति क्षिपं, त्यागश्रेष्ठयशोरस कृतनति नेमि मुदा त्रायक हो"
देखिये, कवि इसी पद्य के अक्षरों को ग्रहण कर अनुष्टुब का नया श्लोक निर्माण करता है:
"भजेऽहं जगदानन्दं, सकलप्रभुतावरम् ।। कृत राजीमतीत्यागं, श्रेयः सन्ततिदायकम् ।।"
[ नेमिनाथस्तव० कु० पृ० ६१६ ] अनेकविध श्लेष और भङ्गश्लेष तथा यमकमय काव्य होते हुये भी इनकी स्वाभाविक सरलता और माधुर्य देखिये:
"केवलागममाश्रित्य, युष्मद्व्याकरणे स्थिताः। सिद्धि प्रकृतयः प्रापुः, पार्श्व ! चित्रमिदं महत् ।४।"
[चिन्ता० पार्श्व स्तोत्र श्लेष, कु. पृ० १८८] "जय प्रभो ! कैतवचक्रहारी, यस्य स्मृतेस्त्वं तव चक्रहारी । मायामहीदारहलोभवामं, स्वर्गाधिपामार हलो भवाम ॥
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