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महोपाध्याय समयसुन्दर
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कवि ने अभूतपूर्व साहस कर इस गच्छ की रक्षा की थी। उसी का फला था समाचारी शतक का निर्माण ।
समाचारी शतक में 'महावीर के षट् कल्याणक थे, अभयदेवसूरि खरतरगच्छ के थे, पर्व दिवस में ही पौषध करना चाहिये, सामायिक में पहले 'करेमिभंते' के पश्चात् इर्यापथि की आलोचना करनी चाहिये, 'आयरिय उवज्झाय' श्रावकों को ही पढ़ना चाहिये, साध्वी को व्याख्यान देने का अधिकार है, देवपूजा शास्त्रीय है, तरुण स्त्रियों के लिये मूलनायक का स्नात्र-विलेपन निषिद्ध है, प्रासुक जल ग्रहण करना चाहिये, ५० वें दिन संवत्सरी पर्व मानना चाहिये, तिथियों की क्षय-वृद्धि में लौकिक पञ्चांगों को मान्यता देनी चाहिये, पौषध में भोजन नहीं करना चाहिये और साधु को पानी ग्रहण करने के लिये मिट्टी का घड़ा रखना चाहिये' आदि चार्चिक प्रश्नों का समाधान करते हुये शिष्टता के साथ शास्त्रीय-प्रमाणों को सन्मुख रखकर गच्छ की परम्परा को वैधानिक स्वरूप प्रदान किया है तथा अनुष्ठानीय कर्मकाण्ड-उपधान, दीक्षा-शन्ति-स्नात्र, प्रतिक्रमण, लुम्चन, देवपूजन आदि का विधान निर्मित कर कवि ने स्थायित्व प्रदान किया है।
इस भगीरथ प्रयत्न में कहीं भी कवि ने अन्य विद्वानों की तरह कि 'मेरा सत्य है, तेरी मान्यता झूठी और अशास्त्रीय है' श्रादि अशिष्ट वाक्यों का प्रयोग कर, अन्य गच्छीयों का खण्डन कर; स्व मत के मण्डन का कहीं भी प्रयत्न नहीं किया है। किन्तु सैद्धान्तिक परम्परा को सन्मुख रखकर सभी जगह यह दिखाया है कि यह शास्त्रसिद्ध और सत्य है । इस प्रकार कवि को हम व्यावहारिक जीवन और प्ररूपक जीवन में देखते हैं तो वह विधानकार के रूप में दिखता हुआ 'वैधानिक' अनुष्ठानों का मूर्तिमान स्वरूप ही दिखाई पड़ता है।
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