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महोपाध्याय समयसुन्दर
व्याकरण
यह सत्य है कि कवि ने अपनी कृतियों में अन्य विद्वानों की तरह पण्डिताउपन दिखाने के लिये स्थल-स्थल पर, शब्द-शब्द पर व्याकरण का उपयोग नहीं किया है। किन्तु यह नहीं कि कवि का व्याकरण ज्ञान शून्य हो! कवि की समग्र देववाणीमय रचनाओं को देख जाइये; कहीं भी व्याकरण ज्ञान की क्षति प्राप्त नहीं होगी। कवि को 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन, पाणिनीय व्याकरण, कलापव्याकरण, सारस्वत व्याकरण और विष्णुवार्तिक* आदि व्याकरण ग्रन्थों का भी विशद ज्ञान था । कवि की प्रकृति को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि उनका विचार था कि ऐसी वाणी का प्रयोग किया जाय जो सर्वग्राह्य हो सके और संस्कृत भाषा का सामान्य छात्र भी उसको समझ सके। यदि स्थल-स्थल पर व्याकरण का उपयोग किया गया तो वह कति केवल विद्वद्भोग्या ही बनकर रह जायगी। यदि उस विद्वभोग्या कति का सामान्य विद्यार्थी अध्ययन करेगा तो व्याकरण के दल-दल में फंसकर, सम्भव है देवगिरा के अध्ययन से पराङ्मुख हो जाय । अतः जहां विशेष मार्मिक-स्थल या अनेकार्थी या असिद्धाभास से स्थल हो, वहीं व्याकरण से सिद्ध करने की चेष्टा की जाय । इसी भावना को रखते हुये, व्याकरण के दल-दल में न फंसकर, कृति को निर्दोष रखते हुये जिस सरलता को अपनाया है; वह व्याकरण के सामान्य-अभ्यासी के अधिकार के बाहर की बात है। इस प्रकार का प्रयत्न पूर्ण वैयाकरणी ही कर सकता है और वह प्रतिभा इस कवि में विद्यमान है।
* अने० पृ०५६
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