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महोपाध्याय समयसुन्दर
राजाओं, सामन्तों और विद्वानों की परिषदा में कवि ने अपना यह नूतन ग्रन्थ सुनाकर सबके सन्मुख यह सिद्ध कर दिखाया कि मेरे जैसा एक अदना व्यक्ति भी एक अक्षर का एक लाख अर्थ कर सकता है तो सर्वश की वाणी के अनन्ते अर्थ कैसे न होंगे ? यह ग्रन्थ सुनकर सब चमत्कृत हुये और विद्वानों के सन्मुख ही सम्राट ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक ठहराया ।
वस्तुतः कवि की यह कृति जैन साहित्य ही क्या, अपितु समग्र भारतीय वाङ्मय में ही अद्वितीय है । क्योंकि, वैसे अनेकार्थी कृतियें अनेकों प्राप्त हैं किन्तु एक अक्षर के हजार अर्थ के ऊपर किसी ने भी अर्थ कर रचना की हो, साहित्य-संसार को ज्ञात नहीं । अतः इस अनेकार्थी रचना पर ही कवि का नाम साहित्य जगत में सर्वदा के लिये अमर रहेगा ।
इस कृति को देखने से ऐसा मालूम होता है कि कवि का व्याकरण, अनेकार्थी कोष, एकाक्षरी कोष और कोषों पर एकाधिपत्य था और एकाक्षरी तथा अनेकार्थी कोषों को तो कवि मानो घोट-घोट कर पी गया हो । अन्यथा इस रचना को कदापि सफलता के साथ पूर्ण नहीं कर पाता । कवि इस कृति में निम्न कोषों का उल्लेख करता है:
अभिधान चिन्तामणि नाममाला कोष, धनञ्जय नाममाला, हेमचन्द्राचार्य कृत अनेकार्थ संग्रह, तिलकानेकार्थ, अमर एकाक्षरी नाममाला, विश्वशम्भु एकाक्षरी नाममाला, सुधाकलश
बहुप्रशंसापूर्ण 'पठतां पाठ्यतां सर्वत्र विस्तार्यतां सिद्धरस्तु ।' इत्युक्त्वा च स्वहस्तेन गृहीत्वा एतत् पुस्तकं मम हस्ते दत्वा प्रमाणीकृतोऽयं ग्रन्थः । [ अने० पृ० ६५ ] हीरालाल १० कापडिया लिखित 'अनेकार्थरत्नमंजुषा - प्रस्तावना'
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