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Harina
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प्रथम अध्याय चारित्र से ही मुक्ति की साधना सघती है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए दोनो का समन्वय होना ज़रूरी है। क्योकि दर्शन प्राख है तो चारित्र पैर है। दर्शन के अभाव मे चारित्र गति तो कर सकेगा परन्तु दृष्टि का अभाव होने से वह सही एव गलत मार्ग को नही समझ सकेगा। इससे वह गलत मार्ग पर भटक जायगा, नरक के गर्त मे गिर जायगा। इसी तरह चारित्र के अभाव मे दर्शन देख तो सकता है परन्तु गति नही कर सकता। वह मुक्ति पथ का अवलोकन करता है, पर पहुच नही सकता। अपने लक्ष्य पर पहुचने के लिए दोनो के समन्वय की आवश्यकता है । दर्शन से चारित्र निखरता है और चारित्र से दर्शन की प्रतिष्ठा है। अत दोनो का सवध सहज ही समझ मे आ जाता है।
स्याहाद या अनेकान्त प्रश्न- जैन परंपरा में विचारों को अभिव्यक्त करने का, तत्त्वनिरूपण का क्या तरीका रहा है? कुछ दार्शनिकों ने एकान्त नित्यत्व की भाषा का प्रयोग किया है, तो कुछ विचारकों ने एकान्त अनित्यत्व की भाषा का सहारा लिया है, जैनों ने कौन सी भाषा में विश्लेषण किया है? उत्तर- जैन विचारको ने दुनिया के सभी पहलूओ पर गहराई से चिन्तन - मनन किया है । उन को तत्त्व-निरूपण की शैली अपूर्व रही है । जहा अन्य दार्शनिको ने एकागी दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का चिन्तन - मनन एव निरूपण किया, वहा जैनो ने अनेकागी दृष्टि से , ज्ञान-क्रियाभ्या मोक्ष , या, सम्यदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष-मार्ग -
-तत्त्वार्थ सूत्र १, १