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प्रथम अध्याय
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प्रयोजन है । ग्रन्वेषण का काम भौतिक विज्ञान भी करता है । परन्तु दर्शन को विशेषता यह है कि वह भौतिक विज्ञान की तरह केवल जगत - का या पदार्थों (तत्त्वों) का विश्लेपण ही नही करता प्रत्युत उसकी उपयोगिता पर भी चिन्तन-मनन करता है, सोचता- विचारता है। उपयो-गितावाद ही दर्शन को अपनी विशेषता है । इसी सूझ-बूझ के आधार पर वह जीवन के सही तथ्य को जानने-समझने की घोषणा करता है । यह नितान्त सत्य है कि जीवन र जगत का घनिष्ट सवध है । हम जीवन को जगत से सर्वथा पृथक् नही कर सकते, उसे एक दम झुठला नही सकते । श्रत जगत के स्वरूप को समझने के पूर्व जीवन के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है । जीवन की वास्तविकता को समझने वाला व्यक्ति जगत के सही स्वरूप का भी परिज्ञान कर लेता है, यह सहज समझ मे ग्राने वाला सत्य है ।
चारित्र का सरल और सीधी भाषा मे अर्थ होता है- आचरण । मनुष्य अपने विचारो के ग्रनुरूप जो प्रवृत्ति करता है, उसे ग्राचरण कहते हैं । साधारणत प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप मे आचरण करता ही है । क्योकि प्रवृत्ति जीवन का एक ग है । उस का प्रवाह जीवन मे सतत रूप से प्रवहमान रहता है । फिर भी सभी मनुष्यो के ग्राचरण को चारित्र नही कहते । किसी भी कार्य मे प्रवृत्त होने का नाम चारित्र नही है | चारित्र शब्द का प्रयोग हम उस श्राचरण या प्रवृत्ति के लिए करते है, जिससे श्रात्मा का अभ्युदय होता हो या नि श्रेयस् (मुक्ति) की साधना सकती हो। प्रत. वे सारी प्रवृत्तियाँ चारित्र है, जो आध्यात्मिक प्रगति मे सहायक है या यो कह सकते है कि वे सभी प्रवृत्तिये चारित्र हैं, जिनके द्वारा महापुरुषो ने मुक्ति को प्राप्त किया है या मुक्ति
§ जे एग जाणइ, से सव्व जाणइ । आचाराग ३
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