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प्रश्नो के उत्तर
के पथपर बढ़ने का मार्ग वताया है। इसके अतिरिक्त,सामाजिक नियमो रीति-रिवाजो, परम्परायो, विधि-विधानो एव जीवन की नैतिकता को भो चारित्र या आचरण के नाम से पुकारते हैं। नैतिक जीवन से भटक जाने वाले व्यक्ति को आचार या चारित्र भ्रष्ट या भ्रष्टाचारी कहना वोलचाल को भाषा वन गई। इतनी लम्बी चर्चा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुचे कि जीवन को उन्नत बनाने वाली, ऊपर उठाने वाली प्रवृत्ति का नाम चारित्र है।
यह हम देख चुके है कि दर्शन और चारित्र पृथक्-पृथक है। दोनो का विपय स्वतत्र है। दोनों का कार्य क्षेत्र एक दूसरे से भिन्न है। दर्शन का क्षेत्र विचार प्रधान है और चारित्र का आचार प्रधान । दर्शन का काम पदार्थों के स्वरूप को जानना-समझना है । जीव और जगत के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान करना है । और चारित्र का काम निःश्रेयस (मुक्ति) के मार्ग मे प्रतिवन्धक प्रवृत्तियों का परित्याग करना तथा ससार के बन्धन से छुड़ाने वाली प्रवृत्तियो का आचरण करना है । इस दष्टि से दर्शन और चारित्र दोनो का विपय भिन्न है । विषय की दृष्टि स भिन्न होते हुए भी दोनो का परस्पर घनिष्ट सबंध है। दोनो एक दूसरे के सहयोगी हैं, परिपूरक हैं। चारित्र रूप धर्म मुक्ति का रास्ता है, परन्तु उस पथ पर गति करने के पहले यह जानना भी अत्यावश्यक है कि ससार क्या है? कर्म क्या है? कर्मवन्ध का कारण क्या है तथा उस से छुटकारा पाने का उपाय क्या है ? इन सव का परिज्ञान हुए विना चारित्र का परिपालन करना कठिन ही नही, असभव है । और ससार के पदार्थो एव उसके स्वरूप का परिजान करके उस से छटकारा पाने देत चारित्र का पालन न हो तो उस ज्ञान या जानकारी मात्र से आत्मा का विकास होना भी असभव है। अत भगवान् महावीर की भाषा मे सिर्फ पदार्थों को जानकारी कर लेने से भी मुक्ति नहीं होती और न केवल