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प्रथम अध्याय
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प्रश्न- दर्शन और चारित्र में क्या अन्तर है? दोनों में समानता है या नहीं ? है तो किस रूप में? उत्तर- दर्शन और चारित्र मे कितना साम्य है और कितना वैषम्य है? इसे समझने से पहले दर्शन और चारित्र के अर्थ को समझ लेना आवश्यक होगा। उसकी जानकारी के बिना दोनो का भेद और अभेद समझ मे नही आ सकेगा । अत पहले हम दोनो की परिभाषा पर विचार करेंगे। - दर्शन का शाब्दिक अर्थ होता है-दृष्टि । जिसे अंग्रेजी मे विजिन " (Vision) कहते हैं । यो तो प्रत्येक व्यक्ति देखता ही है । जिस व्यक्ति
को आखे मिली है, वह उसका उपयोग करता ही है। उनसे ससार के पदार्थो को देखता-परखता ही है। परन्तु हम यहा जिस 'दृष्टि' का प्रयोग कर रहे हैं, उसका अर्थ आखो से देखना मात्र नहीं । जन-साधारण की दृष्टि मे और दार्शनिक की दृष्टि मे अन्तर रहा हुआ है । दार्शनिक दृष्टि का उद्भव स्थान आंखे न होकर, बुद्धि है, विवेक है, तर्क है, विचार एव चिंतन-मनन है। सामान्य व्यक्ति जहा आँखो से देखता है, वहाँ दार्शनिक उसी पदार्थ को विचार और चिन्तन-मनन की अतदृष्टि से देखता है। दूसरे शब्दो मे यो कह सकते है कि साधारण दृष्टि बाह्य अांखो से काम लेती है और दार्शनिक दृष्टि अन्तर आखो से अवलोकन करती है। विवेक, विचार, तर्क एव चिन्तन - मनन इन प्रान्तरिक आखो के ही पर्याय हैं। .
प्रत्येक व्यक्ति अपने आस-पास के विविध पदार्थो को देखता है। वह अपने आप को सामाजिक प्राणी समझता है अत वह अपने आप को दुनियावी पदार्थों से घिरा हुआ पाता है । वह ऐसा सोचता है कि इन चीज़ो से मेरा कोई न कोई सवध अवश्य जुड़ा हुआ