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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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आत्माका गुण स्वीकार करनेमें दूसरा दोष यह आता है कि जिन २ आत्माओं में क्रोधादिकका अभाव हो चुका हैं उन २ आत्माओं का भी अभाव हो जायगा। क्योंकि जब क्रोधादिकको गुण मान चुके हैं तो गुणके अभाव में गुणीका अभाव होना स्वतः सिद्ध है, और यह बात देखनेमें भी आती है कि किन्हीं २ शांत आत्माओं में क्रोधादिक बहुत थोड़ा पाया जाता है । योगियोंमें अति मन्द पाया जाता है, और बारहवें गुणस्थान में तो उसका सर्वथा अभाव है । इसलिये अशुद्ध पुगलका अशुद्ध आत्मासे बन्ध मानना ही न्याय संगत है ।
सारांश----
तत्सिद्धः सिद्धसम्बन्धो जीवकर्मो भयोर्मिथः । सादिसिडेरसिडत्वात् असत्संदृष्टितश्च तत् ॥ ४० ॥
अर्थ – इसलिये जीव और कर्मका सम्बन्ध प्रसिद्ध है और वह अनादिकालसे बन्ध रूप है यह बात सिद्ध हो चुकी । जो पहले शङ्काकारने जीव कर्मका सम्बन्ध सादि (किसी समय विशेष से) सिद्ध किया था वह नहीं सिद्ध हो सका । सादि सम्बन्ध मानने से इतरेतर (अन्योन्याश्रय) आदि अनेक दोष आते हैं तथा दृष्टान्त भी कोई ठीक नहीं मिलता ।
भावार्थ - कनक पाषाण आदि दृष्टान्तोंसे जीव कर्मका अनादि सम्बन्ध ही सिद्ध होत है। यहां पर यह शङ्का हो सकती है कि दो पदार्थोका सम्बन्ध हमेशा से कैसा ? वह तो किसी खास समयमें जब दो पदार्थ मिलें तभी हो सक्ता है ? इस शङ्काका उत्तर यह है कि सम्बन्ध दो प्रकारका होता है, किन्हीं पदार्थोंका तो सादि सम्बन्ध होता है । जैसे कि मकान बनाते समय ईंटोंका सम्बन्ध सादि है । और किन्ही पदार्थों का अनादि सम्बन्ध होता है, जैसे कि कनक पाषाणका, अथवा जमीनमें मिली हुई वृक्षका, अथवा जगद्व्यापी महास्कन्धका अथवा सुमेरु कर्मका सम्बन्ध भी अनादि है ।
अनेक चीजोंका, अथवा बीज और पर्वतका । इसी प्रकार जीव और
जावकी अशुद्धताका कारण --
जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्म कारणम् ।
कर्मणस्तस्य रागादिभावाः प्रत्युपकारिवत् ॥ ४१ ॥
अर्थ - - जीवके अशुद्ध रागादिक भावोंका कारण कर्म है, उस कर्मके कारण जीवके `रागादि भाव हैं। यह परस्परका कार्यकारणपन ऐसा ही है जैसे कि कोई पुरुष किसी पुरुषका उपकार कर दे तो वह उपकृत पुरुष भी उसका बदला चुकानेके लिये उपकार करनेवालेका प्रत्युपकार करता है ।
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भावार्थ — यह संसारी आत्मा अनादि काल से कर्मोका बन्ध कर रहा है, उस कम बन्ध में कारण आत्माके रागद्वेष भाव हैं । रागद्वेष के निमित्त से ही संसारमें भरी हुई कार्माण
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