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सुबोधिनी टीका ।
यौमिक रीतिस धर्मका स्वरूप
धर्मो नीचैः पदादुच्चैः पदे धरति धार्मिकम् । तत्राजवञ्जवो नीचैः पदमुच्चैस्तदत्ययः ॥ ७१५ ॥ अर्थ — जो धर्मात्मा पुरुषको नीच स्थानसे उठाकर उच्चस्थान में धारण करे उसे धर्म कहते हैं । संसार नीच स्थान है और उसका नाश होना 'मोक्ष' उच्चस्थान है। + धर्म
अध्याय ।
सधर्मः सम्यग्ग्ज्ञप्तिचारित्रत्रितयात्मकः ।
तत्र सद्दर्शनं मूलं हेतुरद्वैतमेतयोः ॥ ७१६ ॥
अर्थ- वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकूचारित्र स्वरूप है । उन तीनों में सम्यग्दर्शन ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रका अद्वितीय मूल कारण है । *
सम्यग्दर्शनको प्रधानता-
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ततः सागाररूपो वा धर्मोऽनागार एव वा ।
सह पुरस्सरो धर्मो न धर्मस्तद्विना कचित् ॥ ७१७ ॥
अर्थ — इसलिये चाहे गृहस्थ धर्म हो, चाहे मुनिधर्म हो सम्यग्दर्शनपूर्वक है तो वह धर्म है, यदि सम्यग्दर्शन पूर्वक नहीं है तो वह धर्म भी नहीं कहा जा सकता है । रूढ़ि से धर्मका स्वरूपरूढितोधिवपुर्वाचां क्रिया धर्मः शुभावहा ।
तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्तिः सहानया ॥ ७१८ ॥
अर्थ - शरीर और वचनोंकी शुभ क्रिया रूढ़िसे धर्म कहलाती है । उसी क्रियाके साथ मनोवृत्ति भी अनुकूल होनी चाहिये । भावार्थ – मन, वचन, कायकी शुभ क्रिया धर्म हैं शुभ क्रिया भेद
सा द्विधा सर्वसागारानगाराणां विशेषतः ।
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यतः क्रिया विशेषत्वान्नूनं धर्मो विशेषितः ॥ ७१९
अर्थ — घर सहित -गृहस्थ और घर रहित - मुनियोंकी विशेषतासे वह क्रिया दो
प्रकार है । क्योंकि क्रियाकी विशेषतासे ही निश्चयसे धर्म भी विशेष कहलाता है।
अणुव्रतका स्वरूप
तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् ।
देशतो विरक्तिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् ॥ ७२० ॥
* देशयामि समीचीनं धर्मे कर्मनिवर्हणं + सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः
संसारदुःखतः सत्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः |
रत्नकरण्ड श्रावकाचार |