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अध्याय
सुबोधिनी टीका।
प्रकार सम्यमिथ्यात्वप्रकृतिमें भी सम्यग्दर्शनको घ त करनेकी शक्ति है, सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिके उदयमें सम्यग्दर्शनका घात होकर तीसरा गुणस्थान इस जीवके हो जाता है । जिस प्रकार धान्यका बीचका अंश पूर्ण पुष्टता उत्पादक है उसी प्रकार मिथ्यात्वप्रकृति भी पूर्णतासे सम्यग्दर्शनकी घातक है। इस प्रकृतिके उदयों जीवके पहला गुणस्थान रहता है। इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति एकरूप होनेपर भी तीन भेदोंमें बँट जाती है इसलिये दर्शन मोहनीयके तीन भेद हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धि कषाय चारित्र मोहनीयके भेदोंमें परिगणित है तथापि इस कषायमें दो शक्तियां होनेसे इस दर्शन मोहनीयके भेदोंमें भी गिनाया गया है । अनन्तानुबन्धि कषायमें स्वरूपाचरण चारित्रको घात करनेकी भी शक्ति है और सम्यग्दर्शनको घात करनेकी भी शक्ति है । क्योंकि अनन्तानुबन्धि कषायकी किसी अन्यतम प्रकृतिका उदय होनेपर इस जीवके सम्यग्दर्शन गुणका घात होकर दूसरा गुणस्थान-सासादन होजाता है । इसलिये इसको दर्शन मोहनीयमें भी परिगणित किया गया है । इस प्रकार ऊपर कही हुई सात प्रकृतियां दर्शन मोहनीयकी हैं।।
दर्शनमोहनीय कर्मका फलदृङ्मोहस्योदयादस्य मिथ्याभावोस्ति जन्मिनः। स स्यादौदयिको नूनं दुर्वारो दृष्टिघातकः ॥ ९८८ ॥ अस्ति प्रकृतिरस्यापि दृष्टिमोहस्य कर्मणः ।
शुद्धं जीवस्य सम्यक्त्वं गुणं नयति विक्रियाम् ॥ ९८९ ॥
अर्थ-इस जीवके दर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे मिथ्यारूप परिणाम होता है । वह मिथ्याभाव ही औदयिक भाव है और वही सम्यग्दर्शनका घात करनेवाला है। यह भाव
* यद्यपि यह प्रकृति सम्यग्दर्शनकी पूर्ण घातक है तथापि इसके उदयमें जीवके मिथ्यास्वरूप परिणाम नहीं होते हैं, किन्तु मिश्रित परिणाम होते हैं, इसी लिये इसे जात्यन्तर सर्व घाती प्रकृति बतलाया गया है।
सम्मामिच्छुदयेणय जतंतर सव्वघादिकजेण । णय सम्म मिच्छंपिय सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥ दहिगुडभिव वा मिस्सं पुहभाव णेव कारिदुं सक्क ।
एवं मिस्सय भावो सम्मामिच्छोत्ति णायव्वो। अर्थात् सम्यमिथ्यात्व प्रकृति के उदय होनेपर न तो सम्यग्दर्शन रूप ही परिणाम होते हैं और न मिथ्यात्वरूप ही परिणाम होते हैं किन्तु मिले हुए दोनों ही रूप परिणाम होते हैं जिस प्रकार कि दही और गुड़के मिलनेसे खट्टे और मीठेका मिश्रित स्वाद आता है यद्यपि मिश्र प्रकृति वैभाविक भाव है तथापि मिथ्यात्व रूप वैभाविक भावसे हलका है। ..,
गोमट्टसार। .