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• अध्याय।
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सुबोधिनी टीका। है । जो ज्ञान मिथ्यादर्शनके उदयके साथ होता है उसे ही मिथ्या अवधि कहते हैं। सम्बप्रदर्शनके साथ होनेवाले अवाधज्ञानको सम्यक् अवधि कहते हैं। प्रायः अवधिज्ञान कहनेसे सम्यक् अवधिका ही ग्रहण किया जाता है । मिथ्या अवधिको विभङ्गज्ञान, शब्दसे उच्चा. रण किया जाता है।
गति श्रुत भी दो प्रकार हैअस्ति देधा मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च स्यादद्विधा । .
सम्पङ मिथ्याविशेषाभ्यां ज्ञानमज्ञानमित्यपि ॥१०२१॥
अर्थ-मतिज्ञान भी दो प्रकार है और श्रुतज्ञान भी दो प्रकार है, एक ज्ञान एक अज्ञान । सम्यग्ज्ञानको ज्ञान कहते हैं, और मिथ्याज्ञानको अज्ञान कहते हैं।...
त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यत्स्यादज्ञानमर्थतः । * .... . क्षायोपशमिकं तत्स्थानस्यादौदयिकं कचित् ॥ १०२२ ॥
अर्थ-इन तीनों ज्ञानोंमें अर्थात् कुमति, कुश्रुत, कुअवधिमें जो अज्ञान है वह वास्तवमें क्षायोपशमिक ज्ञान है वह अज्ञान कहीं औदयिक नहीं है । भावार्थ-मिथ्याज्ञान भी अपने अपने आवरणोंके क्षयोपशमसे ही होते हैं इसलिये वे भी क्षायोपशमिक भाव हैं, वे मिथ्यादर्शनके उदयके साथ होते हैं इसीलिये मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। मिथ्यात्वके उदयसे उसके अविनाभावी ज्ञान मी पदार्थको विपरीत रूपसे ही जानते हैं। परन्तु जानना क्षायोपशमिक ज्ञान है।
औदायक ज्ञानअस्ति यत्पुनरज्ञानरर्थादौदयिकं स्मृतम् । तदस्ति शून्यतारूपं यथा निश्चेतनं वपुः ॥ १०२३ ॥
अर्थ-जो अज्ञानभाव औदयिक भावोंमें कहा गया है वह शून्यतारूर है, जैसे कि चेतनके निकल जानेपर शरीर रह जाता है। भावार्थ जीवके इक्कीस औदायिक भावों में अज्ञान भी है। वह अज्ञानभाव जीवकी औदयिक अवस्था है। जब तक इस आत्मामें सर्व पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता है अर्थात् जबतक केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है तब तक उसके अज्ञानमाव रहता है । यह भाव ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होता है । पदार्थ विषयक अज्ञान होना ही उसका स्वरूप है । अर्थात् नितने अंशोंमें ज्ञानावरण कर्मका उदय रहता है उतने ही अंशोंमें अज्ञान भाव रहता है, जैसे अवधिज्ञानावरण, मनःपयेंय ज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण कोका आनकल यहाँपर सब जीवोंके उदय हो रहा है इसलिये ने सर्व अनान भाव सहित हैं । वह अज्ञान क्षायोपशमिक नहीं है, यदि वह सायोपशामिक
* संशोधित पुस्तकमें ‘यदशानत्वमर्थतः ' ऐसा पाठ है । क्योंकि अज्ञानों में अशानवधर्म रहता है।