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अध्याय
सुबोधिनी टीका ।
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आचार्यों को ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी थी जो कि विना किसी प्रयोजनके कल्पना करके लोगोंको ठगते ? यदि यही कर्तव्य उनको करना शेष था तो क्यों सांसारिक सुखका परित्याग कर कठिन ता करने के लिये भयास्पद जंगलको उन्होंने निवास स्थान बनाया था ? यदि कहा जाय कि आना कल्याग करने के लिये तो दूसरे लोगोंको प्रतारण करना आत्मकल्याण नहीं कहा जा सकता है ? इसलिये आचार्यों की कृतिको जो मिथ्या बतलाते हैं वे विचारे मिथ्यास्व कर्मेदियके सताये हुए हैं। दूसरी बात यह है कि कल्पनासे शिक्षा अवश्य मिलती है परंतु निश्चय पथका परिज्ञान कभी नहीं हो सकता, और विना निश्चय पथका परिज्ञान हुए उस शिक्षाको सुखद शिक्षा नहीं कहा जा सकता। पद्मपुराणमें लिखा है कि रावणने कैलाश पर्वत उठानेके पीछे उस पर्वत पर जब चैत्यालय और मुनिमहाराजके दर्शन किये तब भक्तिके बश अपने हाथकी नशको चिकाड़ा बना कर उनके गुणोंका गद्द गान किया। इसी प्रकार वज्रजंघने मुनिमहाराजके दर्शन कर अणुव्रतोंको ग्रहण किया, अथवा रामचंद्रको सीताके जीवने बहुत कुछ विचलित करनेका उद्योग किया, परंतु वे भ्यानमें दृढ़ ही बने रहे, किञ्चिन्मात्र भी विचलित न होसके, इत्यादि बातोंको यदि ठीक माना जाता है तब तो मनुष्य उसी प्रकारकी क्रियाओंसे अपने भावोंका सुधार कर सक्ते हैं और रावणके समान भक्तिरस में मग्न हो सक्ते हैं, वज्रबंधके समान अपने अन. याँको छोड़ सके हैं, रामचन्द्रके तुल्य ध्यानमें निश्चल-उपयोगी बन सक्ते हैं । अंजनचोर सरीखे पुरुषोंके आगे पीछेके कर्तव्योंसे भावोंका वैचित्र्य जान सक्ते हैं । परन्तु इन सब बातोंको काल्पनिक समझनेसे कुछ कार्य सिद्ध नहीं हो सका है, क्योंकि कल्पनामें रावण-- उसकी भक्ति, रामचन्द्र-उनका ध्यान, वज्र नंघ-उसका सुधार, अंजनचोर-उसकी काया पलट, ये सब कार्य मिथ्या ही प्रतीत होगें। ऐसी अवस्थामें किस आधार पर और किस आदर्शसे सुधारकी यथार्थ शिक्षा ली जा सकी है ! किसीने पाप किया वह नरकको गया, किसीने पुण्य किया वह स्वर्गको गया, यह पाप पुण्यका फल भी मिथ्या ही प्रतीत होगा, क्योंकि कल्पनामें न कोई स्वर्ग गया और न नरक गया, ऐसी अवस्था नरक स्वर्ग व्यवस्था भी उड़ जाती है । केवल वे ही बातें शेष रह जाती हैं जो कि संसारमें-व्यवहारमें आ रही हैं, परोक्ष पदार्थ कुछ पदार्थ नहीं ठहरते । परोक्ष पदार्थों में बुद्धि न जानेसे अज्ञानी पुरुष लोकको भी उतना ही समझता है जितना कि वह देखता है। ऐसा विपरीत भाव मिथ्यात्व कर्मके उदयसे होता है।
मिथ्यात्व कमोदयसे होनेवाले भावज्ञानानन्दौ यथा स्यातां मुक्तात्मनो यदन्वयात् । विनाप्यक्षशरीरेभ्यः प्रोक्तमस्त्यस्ति वा न वा ॥ १०४८॥
उ.
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