Book Title: Panchadhyayi Uttararddh
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakash Karyalay

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Page 334
________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका । [ ३२५ बंध होता है। इसीलिये आचार्योका उपदेश है कि परिणामोंको सदा उनाक बनाओ, नहीं मालूम किस समय आयुका त्रिभाग पड़ जाय । मरण कालमेंसे तो अवश्य ही क्रोधादिका बाग कर शान्त हो जाओ क्योंकि मरणकालमें तो आयुबंधकी पूर्ण संभावना है। इसीलिये समाधि मरण करना परम आवश्यक तथा परम उत्तम कहा गया है। * उपर्युक्त आयुबन्धके योग्य आठ अंशोंको छोड़कर बाकीके अठारह अंश योग्यतानुसार चारों गतियोंके कारण होते हैं । अठारह अंशोंमेंसे जैसा अंश होगा उसीके योग्य गति बन्ध होमा । शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे हुए जीव नियमसे सर्वार्थसिद्धि जाते हैं। उसीके जघन्य अंशसे मरे हुए जीव बारहवे स्वर्ग तक जाते हैं तथा मध्यम अंशसे मरे हुए आनतसे ऊपर सर्वार्थसिद्धिसे नीचे तक जाते हैं । पद्मलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे हुए जीव सहस्रार स्वर्ग जाते हैं उसके जघन्य अंशसे मरे हुए जीव सनत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग जाते हैं और मध्यम अंशसे मरे हुए इनके मध्यमें जाते हैं। पीतलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे हुए सनत्कुमार माहेन्द्र तक जाते हैं । उसके जघन्य अंशसे मरे हुए सौधर्म ईशान स्वर्गतक जाते हैं और मध्यम अंशसे इनके मध्यमें जाते हैं। इसप्रकार इन शुभलेश्याओंके अंशों सहित मरकर मीव स्वर्ग जाते हैं । और कृष्णलेश्या, नीललेश्या कापोतीलेश्याओंके उत्कृष्ट अधन्य मध्यम मंशोंसे मरे हुए जीव सातवें नरकसे लेकर पहले नरक तक यथायोग्य जाते हैं। तया भवनत्रिकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव और सातों पृथिवियोंके नारकी अपनी२ वेश्याभोंके अनुसार मनुष्यगति अथवा तिर्यञ्च गतिको प्राप्त होते हैं । इतना विशेष है कि जिस गति सम्बन्धी आयुका बन्ध होता है उसी गतिमें जाते हैं, बाकीमें नहीं। क्योंकि आयुबन्ध छुटता नहीं है। गतिबन्ध छुट भी जाता है। आयुका अविनामावी ही गतिबन्ध उदयमें आता है । वाकीकी उदीरणा हो जाती है । तथा गतिबन्धके होनेपर भी मरण समयमें जैसी लेश्या होती है उसीके अनुसार उसी गतिमें नीचा अथवा ऊंचा स्थान इस जीवको मिलता है। उपर्युक्त लेश्याओंके विवेचनसे यह बात भलीभांति सिद्ध है कि अनोंका मूल कारण लेश्यायें ही हैं । इस पञ्चपरावर्तनरूप अनादि अनन्त-मर्यादारहित संसार समुद्र में यह आत्मा इन्हीं लेश्याओंके निमित्तसे गोते खा रहा है। कभी अशुभलेश्याओंके उदयसे नरक तिर्यश्च गतिरूप गहरे भ्रमरमें पड़कर घूमता हुआ नीचे चला जाता है, और कभी शुम लेश्याभोंके उदयसे मनुष्य, देव गतिरूप तरंगोंमें पड़कर ऊपर उछलने लगता है, जिस समय यह आत्मा नीचे जाता है उस समय अति व्याकुल तथा चेतना हीनता होजाता है, मिस समय ऊपर आत, • देव नारकियोंके भुज्यभान आयुके छह महीना, और भोग भूमियोंके नौ महीना शेष रह जानेपर परभवकी आयुका बन्ध होता है। उनके उतने ही कालमें आठ अपकर्षकालकी योग्यता होती है। इनकी किसी कारण वश अकालमृत्यु नहीं होती है इसलिये इनमें विशेषता है।

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