Book Title: Panchadhyayi Uttararddh
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakash Karyalay

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Page 335
________________ पञ्चाध्यायी। है उस समय भी यद्यपि तीव्र तरंगोके झकोरोंसे शान्ति लाभ नहीं करने पाता है तथापि नीचेकी अपेक्षा कुछ शान्ति समझने लगता है । इसी लिये कतिपय विचारशील उम भ्रमरजालसे पचनेके लिये अनेक शुभ उद्योग करते हैं । बुद्धिमान पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे छहो लेश्यावोंके स्वरूपको उनके कार्योंको उनसे होनेवाले आयु वध और गति बन्ध आदिको समझकर अशुभलेश्याओंको छोड़ दें, और शुभ लेश्याओंको ग्रहण करें । अर्थात् तीव्र क्रोध, धर्महीनता, निर्दयता, स्वात्म प्रशंसा, परनिंदा, मायाचार आदि अशुभ भावोंका त्यागकर समता, दया माव, दानशीलता, विवेक धर्मपरायणता आदि शुभ भावोंको अपनावे इसी लिये गोमट्टपारके आधारपर लेश्याओंका इतना विवेचन किया गया है । परन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे वास्तविक विचार करनेपर शुभ तथा अशुभ दोनों लेश्यायें इस संसारसमुद्रमें ही डुबाने वाली हैं। अशुम लेश्या तो संसार समुद्रमें डुबाती ही हैं परन्तु शुभ लेश्या भी उससे उद्धार नहीं कर सक्ती क्योंकि वह भी तो पुण्य बंधका ही कारण है, और जब तक इस आत्माके साथ बन्ध लग, हुआ है तब तक यह आत्मा परम सुखी नहीं होसक्ता है । इसलिये जो अशुभ तथा शुभ दोनों प्रकारकी लेश्याओंसे रहित हैं वे ही परमसुखी-सदाके लिये कर्मबन्धनसे मुक्त-अनन्त गुण तेजोधाम, वीतराग-निर्विकार-कृतकृत्य-स्वात्मानुभूतिपरमान्दनिमग्न-सिद्ध परमेष्ठी हैं। उन्ही परम मङ्गलस्वरूप सिद्ध भगवानके ज्ञानमय चरणारविन्दोंको हृदय मंदिर में स्थापित कर तथा उन्हींकी बार बार भावना कर इस ग्रन्थराजकी यह सुबोधिनी टीका यहीं समाप्त की जाती है। मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुंदकुंदार्यों जैन-धर्मोस्तु मंगलं ॥१॥ . . (मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी वीर सं० २४४४.)

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