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अध्याय ।]
सुबोधिनी टीका ।
[३.५
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उत्तर
सत्यंचारित्रमोहस्य कार्य स्थादुभवात्मकम् ।
असंयमः कषायाश्च पाकादेकस्य कर्मणः ॥ ११२६ ॥
अर्थ-ठीक है चारित्र मोहनीयके ही दो कार्य हैं । उसी एक कर्मके उदयसे असंयम भाव और कषाय भाव होते हैं।
चारित्र मोहनीयके भेदपाकाच्चारित्रमोहस्य क्रोधाद्याः सन्ति षोडश।। नव नोकषायनामानो न न्यूना नाधिकास्ततः॥ ११२७ ॥
अर्थ-चारित्र मोहनीय कर्मके प.कसे क्रोधादिक सोलह कषायें और नव नो कषायें होती हैं। इन पच्चीससे न कम होती हैं और न अधिक ही होती हैं ।
कषायोंका कार्यपाकात्सम्यक्त्वहानिः स्यात् तत्रानन्तानुबन्धिनाम् । पाकाचाप्रत्याख्यानस्य संयतासंयतक्षतिः॥ ११२८ ॥ प्रत्याख्यानकषायाणामुदयात् संयमक्षतिः।।
संज्वलननोकषायैर्न यथाख्यातसंयमः ॥११२९ ॥
अर्थ-अनन्तानुबन्धि कषायके उदयसे सम्यग्दर्शनका घात होता है । अप्रत्याख्यान कषायके उदयसे संयमासंयमका घात होता है। प्रत्याख्यान कषायके उदयसे सकल संयमका घात होता है और संज्वलन और नो कषायोंके उदयसे यथाख्यात संयमका घात होता है।
इत्येवं सर्ववृत्तान्तः कारणकार्ययोईयोः । कषायनोकषायाणां संयतस्येतरस्य च ॥ ११३० ।।
अर्थ-यह सम्पूर्ण कथन कषाय नोकषाय संयम और असंयमके कार्य कारणको प्रकट करता है । भावार्थ-कषाय नोकषायका असंयम के साथ कार्य कारण भाव है, और उनके अभावका संयमके साथ कार्य कारण भाव है। इतना विशेष है कि जहां नितनी कषायें हैं वहां उतना ही असंयम है।
किन्तु तच्छक्तिभेदाला नामिळ भेदसाधनम् ।
एकं स्याद्वाप्यनेकं च विषं हालाहलं यथा ॥ ११३१ ॥
अर्थ-किन्तु चारित्र मोहनीयमें शक्ति भेदसे भेद साधन असिद्ध नहीं है। जिस प्रकार विषके विष, हालाहल इत्यादि अनेक भेद हो जाते हैं, उसी प्रकार उक्त कर्म भी एक तथा अनेक रूप हो जाता है।
अस्ति चारित्रमोहे पि शक्तिद्वैतं निसर्गतः एकश्चाऽसंयतत्वं स्थात् कषायत्वमथापरम् ॥ ११३२॥