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अध्याय।
सुबोधिनी टीका । है । परन्तु नाम कर्मने उस सूक्ष्मताको छिपा दिया है,। जिन प्रकार किसी कारखानेका एक इञ्जन अनेक कार्योको करता है, उसी प्रकार नामकर्म भी आस्माको अनेक रूपोंमें घुमाता है। नाम कर्मकी उपमा एक बहु रूपधारी-बहुरूपियासे ठीक घटती है। जिस प्रकार बहु रूपोंको धारण करनेवाला बहुरूपिया अपने असली सूक्ष्म स्वरूपको छिपा रखता है, उसी प्रकार नाम कर्मने आत्माके असली-सूक्ष्म स्वरूपको छिपा रक्खा है और स्थूल पर्यायोंसे उसे बहु रूपधारी-बहुरूपिया बना रखा है।
___ आत्मा अनन्त गुणधारी, निर्विकार शुद्ध है उसमें न नीचता है और न उच्चता है वह सदा एकसा है, परन्तु गोत्र कर्मने उसे ऊंच नीच वना रक्खा है। नीच गोत्रके उदयसे यही अनन्त गुण धारी आत्मा कभी नीच कहलाने लगता है और उच्च गोत्रके उदयसे कभी उच्च कहलाने लाता है। गोत्र कर्म का कार्य गोमट्टसारमें इसप्रकार है 'संताणकमेणागय जीवायरण-स गोदमिदि सण्णा, उच्च णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं, अर्थात् कुल परम्परासे चला आया जो जीवका आचरण है उसकी गोत्र संज्ञा है। उस कुल परम्परामें यदि उच्च आचरण है तो वह उच्च गोत्र कहलाता है। यदि निंद्य हीन आचरण हो तो वह नीच गोत्र कहलाता है। यद्यपि उच्च नीच गोत्रमें आचरणकी अवश्य प्रधानता है, परन्तु साथ ही कुल परम्पराकी भी प्रधानता अवश्य है। अन्यथा किसी क्षत्रिय राजाके जो पुत्र होता है वह जन्म दिनसे ही उच्च कहलाने लगता है। इसी प्रकार एक चाण्डालके जो पुत्र होता है वह जन्म दिनसे ही नीच कहलाने लगता है। यदि उच्च नीचका आचरणसे ही सम्बन्ध हो तो जन्म दिनसे लोक उन्हें उत्तम और नीच क्यों समझने लगते हैं। उन्होंने अभी कोई आचरण नहीं प्रारंभ किया है। यदि कहा जाय कि उन्होंने आचारण भले ही न किया हो परन्तु उनके माता पिता तो अपने आचरणोंसे उच्च नीच बने हुए हैं, उन्हींके यहां जो बालक जन्म लेता है वह भी उसी श्रेणीमें शामिल किया जाता है तो सिद्ध हुआ कि साक्षात् आचरण उच्च नीचका कारण नहीं है, किन्तु कुल परस्परा ही प्रधान कारण है । गोत्र कर्मका लक्षण बनाते हुए स्वामी पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में भी यही कहा है-यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रं, यदुदयाद्गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीच्चैर्गोत्रम्, जिसके उदयसे लोकपूजित कुलोंमें जन्म हो उसे उच्चगोत्र कहते हैं। और जिसके उदयसे निंद्य कुलोंमें जन्म हो उसे नीचगोत्र कहते हैं। इस उच्चगोत्र नीचगोत्रके लक्षणसे यह बात स्पष्ट है कि कुल परम्परासे ही उच्चता नीचताका व्यवहार होता है। साक्षात् आचरणोंसे नहीं होता । इसका कारण भी यही है कि गोत्र कर्मका उदय वहींसे प्रारंभ होजाता है जहांसे कि यह जीव एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायमें जाने लगता
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