________________
पश्चाध्यायी।
[दूसरा
- NNNNNNNN
साताके उदयसे जो सुखसा प्रतीत होने लगता है उसे ही वह सच्चा सुख समझता है। वास्तवमें वह सुख नहीं है किन्तु दुःखकी कमी है । सांसारिक सुखका उदाहरण ऐसा है जैसे किसी आदमीमें कोई मुद्गरकी मार लगावे और लगाते २ थक जाय तो उस समय पिटनेवाला समझता है कि अब कुछ साता मिली है। ठीक इसी प्रकार दुःखकी थोड़ी कमीको ही यह जीव सुख समझने लगता है । मांसारिक सुखके विषयमें स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा है 'कर्मपरवशे सान्ते दुःखरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता । अर्थात् (१) सांसारिक सुख कमौके अधीन हैं । जब तक शुभ कर्मोंका उदय है तभी तक है। (२) इसी लिये उसका अन्त भी शीघ्र हो जाता है (३) बीच बीचमें उसके दुःख भी आते रहते हैं (४) और पापका बीन है अर्थात् जिन बातोंमें संसारी सुख समझता है वे ही बातें पापबन्धकी कारणभूत हैं इसलिये सांसारिक सुख दुःखका कारण अथवा दुःख रूप ही है। वेदनीय कर्मका अभाव हो जानेसे आत्मा अव्याबाध गुणका भोक्ता हो जाता है । आत्माके उस निराकुल स्वरूप अव्याबाध ( बाधा रहितपना) गुणको वेदनीय कर्मने ढक रक्खा है मोहनीय कर्मके विषयमें पहले बहुत कुछ कहा जा चुका है । आठों कर्मों में एक यही कर्म अनर्योका मूल है । यह कर्म सब कर्मोका रामा है। यही आठों कौके बन्धका कारण है। मोहनीय कर्ममें दूसरे कसे एक बड़ी विशेषता यही है कि दूसरे गुण वो अपने प्रतिपक्षी गुणोंको ढकते ही हैं परन्तु मोहनीय कर्म अपने प्रतिपक्षी गुणको विपरीत स्वादु बना देता है। यह कर्म आत्माके प्रधान गुण सम्यक्त्व और चारित्रका घात करता है । इसी कर्मने जीवोंको कुपथगामी-भ्रष्ट-अनाचारी तथा रागी द्वेषी बना रक्खा है। इस कर्मके दूर हो जानेसे आत्मा परम बीतराग-शुद्धात्मानुभवी हो जाता है । आयु कर्म बेड़ीका काम करता है। जिस प्रकार किसी दोषीको बेड़ीसे जकड़ देने पर फिर वह कहीं जा नहीं सक्ता, इसी प्रकार यह संसारी जीव भी गतिरूपी जेलखानोंमें आयुरूपी बेड़ीसे जकड़ा रहता है जब तक आयु कर्म रहता है तब तक इसे मृत्यु भी नहीं उठा सक्ती है। नरकगतिमें वर्णनातीत दुःखोंको सहन करता है परन्तु आयु कर्म वहांसे टलने नहीं देता है। आयु कर्मके चार भेद हैं, उनमें तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु ये तीन आयु शुभ हैं । नरकायु अशुभ है। आयु कमके उदयसे यह जीव कभी किसी शरीरके आकारमें बंधा रहता है कभी किसी शरीरके आकारमें बंधा रहता है परंतु अपने वास्तविक स्वरूपका अवगाहन नहीं करता है, अर्थात अपने स्वरूपमें नहीं ठहर पाता है । इसलिये आयुकर्मने जीवके अवगाहन गुणको छिपा रखा है।
नाम कर्मने आत्माके सूक्ष्मत्व गुणको रोक रक्खा है । इस कर्मके उदयसे आत्मा गति, जाति, शरीर, अंग, उपांग, आदि अनेक प्रकारके अनेक रूपोंको धारण करता हुआ स्थूल पर्यायी वन गया है। वास्तव में गत्यादिक विकारोंसे रहित-अमूर्तिक आत्माका सूक्ष्म स्वरूप