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अध्याय।
सुबोधिनी टीका। उसके दर्शन गुणको ढक दिया है केवल थोड़ासा क्षयोपशम होनेसे वह आंख रूपी अरोखेसे देख सकता है। जिन जीवोंके इतना भी भयोपशम नहीं होता वे विचारे इतना भी नहीं देख सके अर्थात् उनके आंख भी नहीं होती, जैसा कि पहले कहा गया है । इसका दृष्टान्त स्पष्ट ही है जैसे एक आदमी बंद मकानमें बंद कर दिया जाय तो वह बाहरकी वस्तुओंको नहीं देख सक्ता है । परन्तु उस मकानकी यदि एक खिड़की खोल दी जाय तो वह खिड़कीके सामने आये हुए पदार्थोंको देख सक्ता है यदि दूसरी खिड़की भी खोल दी जाय तो उसके सामने आए हुए पदार्थों को भी वह देख सक्ता है । इसी प्रकार पूर्व पश्चिमकी तरह उत्तर दक्षिणकी तरफकी खिड़की भी यदि खोल दी जाय तो उधरके पदार्थोंको भी वह देख सक्ता है। यदि सब मकानकी मित्तियोंको गिरा दिया जायं और चौपट कर दिया जाय तो वह आदमी चारों ओरके पदार्थोको देख सकता है । दूसरा दृष्टान्त दर्पणका ले लीजिये । एक विशाल दर्पण पर यदि काजल पोत दिया जाय तो उसमें सर्वथा मुंह दिखाई नहीं देता है। परन्तु उसी दर्पण पर एक अंगुली फेर कर उसका अंगुलीके बराबरका भाग स्वच्छ कर दिया जाय तो उतने ही भागमें दीखने लगेगा। यदि दो अंगुली फेरी जायँ तो कुछ अधिक दीखने लगेगा इसी प्रकार तीन चार पांच अंगुलियोंके फेरनेसे बहुत अच्छा दीखने लगेगा । कपड़ेसे अच्छीतरह पूरे दर्पणको साफ कर दिया जाय तो सर्वथा स्पष्ट और पूर्णतासे दीखने लगेगा । इसी प्रकार आत्मामें सम्पूर्ण पदार्थोके देखनेकी शक्ति है परन्तु दर्शनावरण कर्मने उस शक्तिको ढक रक्खा है। उत्तीके निमित्तसे आत्मा इन्द्रियरूपी अरोंखोंके बन्धनमें पड़कर पदार्थको स्पष्टतासे नहीं देख सक्ता है । और न सूक्ष्म और दूरवर्ती पदार्थको ही देख सक्ता है। आत्मा जब दर्शनावरण कर्मके बन्धनसे मुक्त होता है तब वह इन्द्रियोंकी सहायतासे नहीं देखता है, किन्तु आत्मासे साक्षात् देखने लगता है उसी समय अखिल पदार्थों का वह प्रत्यक्ष भी कर लेता है जैसे कि खिड़कीसे देखनेवाला मकानको फोड़ देनेसे खिड़कियोंकी सहायताके विना आसपासके समस्त पदार्योको देख लेता है । वेदनीय कर्म अनेक प्रकारसे सांसारिक सुख दुःख देता रहता है। यद्यपि वेदनीय कर्म अवातिया है तथापि रति कर्म और अरति कर्मका सम्बन्ध होनेके कारण वह आत्माको आघात पहुंचाता है* इसीलिये वेदनीय कर्मका पाठ घातिया कौके बीचमें दिया है। जबतक वेदनीय कर्मका सम्बन्ध रहता है तब तक आत्मा सांसारिक सुख दुःखकी बाधासे बाधित रहता है । वेदनीय कर्मके दो भेद हैं (१) साता ( २ ) असाता। असाताके उदयसे तो इस जीवको असाता होती ही रहती है परन्तु साताके उदयसे जो साता होती है वास्तवमें वह भी असाता ही है। संसारी जीव सदा दुःखोंसे सन्तप्त रहता है इसलिये ____ * ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थानोंमें रति अरतिका उदय न होनेसे वेदनीय कर्म कुछ नहीं कर सक्ता।