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पञ्चाध्यायी ।
सिद्धत्वगुणसिद्धत्वं कृत्स्नकर्मभ्यः पुंसोवस्थान्तरं पृथक् । ज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीर्याद्यष्टगुणात्मकम् ॥ ११४३ ॥ अर्थ- सम्पूर्ण कर्मोंसे रहित पुरुषकी शुद्ध अवस्थाका नाम ही सिद्धत्वगुण अथवा सिद्धावस्था है । वह अवस्था ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्यादि आठ गुण स्वरूप है । भावार्थ - ज्ञानावरण कर्मने आत्माके ज्ञानगुणको ढक रक्खा है । जीवोंमें ज्ञानकी जो न्यूनाकिता पाई जाती है वह ज्ञानावरण कर्मकी न्यूनाधिकता के निमित्तसे ही पाई जाती है । मूर्खोसे विद्वानोंमें, विद्वानोंसे महाविद्वानों में ज्ञानका आधिक्य पाया जाता है उनसे ऋषियों में, तथा उनसे महर्षियों और गणधरोंमें ज्ञानका आधिक्य उत्तरोत्तर होता गया है परन्तु यह सब ज्ञान क्षयोपशमरूप ही है। जहां पर ज्ञानावरणरूपी पर्दा सर्वथा हट जाता है वहीं पर यह आत्मा समस्त लोकालोकको जाननेवाला सर्वज्ञ हो जाता है । उस सर्वज्ञ - ज्ञानमें समस्त पदार्थों की समस्त पर्यायें साक्षात् झलकती हैं। हर एक आत्मामें सर्वज्ञ - ज्ञानको प्राप्त करने की शक्ति है परन्तु ज्ञानावरण कर्मने उस शक्तिको मेघोंसे ढके हुए सूर्यके समान छिपा दिया है । इसी प्रकार दर्शन गुणको दर्शनावरण कर्मने ढक रक्खा है । संसार में जो जीव देखे जाते हैं उनमें कितने तो ऐसे हैं जो केवल पदार्थोंको छूना ही जानते हैं, उनके मुह, नाक, आंख, कान, नहीं होते, दृष्टान्तके लिये वृक्षको ही ले लीजिये । वृक्षके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय है उसीसे वह पानीका स्पर्श कर वृद्धि पाता है। इसी कोटि में पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वाले जीव भी हैं। इन जीवोंके पृथिवी आदि ही शरीर हैं इसलिये हम सिवा उस पृथ्वी जल आदि स्थूल शरीरके उनका प्रत्यक्ष नहीं कर सक्ते हैं । उन जीवोंकी चेतना कर्मोंसे गहरी आच्छादित है इसलिये केवल वृक्ष पर्वतादिकी वृद्धिसे उनका अनुमान कर लेते हैं । कुछ जीव पदार्थोंको छूते हैं और घखते हैं । उनके पहले जीवोंकी अपेक्षा एक मुंह (रसना इन्द्रिय) अधिक है । इन जीवोंकी चेतना कर्मोंके कुछ मंद होनेसे पदार्थके रसका अनुभव भी कर सक्ती है । कुछ जीवोंमें पदार्थों की गन्ध जानने की भी शक्ति है ऐसे जीवोंके नासिका इन्द्रिय भी होती है। इस श्रेणी में चींटियां, मकोड़े आदि जीव आते हैं। इन जीवोंके आंखे कान नहीं होते हैं ।
भ्रमर, बरें, मक्खी आदि जीव देख भी सक्ते हैं । और कुछ जीव सुन भी सक्ते हैं । और कुछ जीव ऐसे होते हैं जो मनमें पदार्थोंका अनुभव भी करते हैं । इस श्रेणीमें मनुष्य पशु आदि आते हैं। यहांपर विचारनेकी यह बात है कि जैसे मनुष्य आंखसे जितना देखता है क्या वह उतनी ही देखनेकी शक्ति रखता है ? नहीं, वह सम्पूर्ण आत्मासे समस्त पदार्थोंके देखनेकी शक्ति रखता है, परन्तु देखता क्यों नहीं ?
देखता इस लिये नहीं, कि वह आंख रूपी झरोखेसे परतन्त्र हो रहा है। दर्शनावरण कर्मने
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[ दूसरा