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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
दी है उसके दृष्टान्त ये हैं- वेणुके नीचेका भाग, भैंसका सींग, गौका मूत्र, खुरपा । वेणुके नीचेका भाग बहुत गांठ गठीला होता है तथा उत्तरोत्तर कम कुटिलता है । वे चारों माया कषायें भी क्रमसे नरकादि गतियोंमें ले जानेवाली हैं। लोभकी चिक्कणता से उपमा दी है। उसके दृष्टान्त ये हैं- कृमि राग, अर्थात् हिरमिजीका रंग पहियेकी ओंगन, शरीरका मल, हल्दीका रंग । ये चारों लोभ कषायें भी क्रमसे नरकादि गतियोंमें ले जानेवाली हैं। जीवके व्रत रहित भावका नाम असंयम है, किन्हीं परिणामोंमें यह जीव अष्टमूल गुणोंको भी धारण नहीं कर सक्ता है । किन्हीं परिणामोंमें अष्ट मूल गुणोंको धारण कर लेता है परन्तु अणुत्रतों को नहीं धारण कर सक्ता है । कहींपर अणुव्रतोंको तो धारण कर लेता है परन्तु उनके अतीचारोंको नहीं छोड़ सक्ता है । कहीं पर महात्रतोंको धारण नहीं कर सक्ता है । जब तक असंयम मावका उदय रहता है तब तक आत्मा व्रतोंको धारण करनेके लिये तत्पर नहीं होता है ।
कषाय और असंयमका कारण -
एतद्द्वैतस्य हेतुः स्याच्छक्तिद्वैतैककर्मणः ।
चारित्रमोहनीयस्य नेतरस्य मनागपि ॥ ११३७ ॥
अर्थ - कषाय भाव और असंयम भावका कारण - दो शक्तियोंको धारण करनेवाला केवल चारित्र मोहनीय कर्मका उदय है। किसी दूसरे कर्मका उदय इन दोनों में सर्वथा कारण नहीं है। दोनों साथ ही होते हैं-
यौगपद्यं द्वयोरेव कषायासंयत्तस्वयोः ।
समं शक्तिद्वयस्योच्चैः कर्मणोस्य तथोदयात् ॥ ११३८ ॥
अर्थ - कषायभाव और असंयतभाव ये दोनों साथ साथ होते हैं, क्योंकि समान दो शक्तियोंको धारण करनेवाले चारित्र मोहनीय कर्मका उदय ही वैसा होता है ।
दृष्ठान्त---
अस्ति तत्रापि दृष्टान्तः कर्मानन्तानुवन्धि यत् । घातिशक्तिश्योपेतं मोहनं दृकूचरित्रयोः ॥ ११३९ ॥
अर्थ-दो शक्तियोंको धारण करनेवाले कर्मके उदयसे एक साथ दो भाव उत्पन्न होते हैं इस विषय में अनन्तानुवन्धी कषायका दृष्टान्त भी है— सम्यग्दर्शन और सम्यक्aftant at करने रूप दो शक्तियोंको धारण करनेवाली अनन्तानुवन्धि कषाय जिस समय उदयमें आती है उस समय सम्यग्दर्शन और चारित्र दोनों ही गुण नष्ट हो जाते हैं ।
शंकाकार
ननु चाप्रत्याख्यानादिकर्मणामुदयात् क्रमात् । देशकृत्स्नप्रतादीनां क्षतिः स्यात्तत्कथं स्मृतौ ॥ ११४० ॥