Book Title: Panchadhyayi Uttararddh
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakash Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 316
________________ अध्याय।] सुबोधिनी टीका। [३०७ कषायके कुछ स्पर्धक प्रमत्त भावको पैदा करते हैं, कुछ नहीं करते वहां भी शक्ति भेदसे चारित्र मोहके अधिक भेद होने चाहिये ? इस लिये जहां जातिभेद होता है वहीं पर संख्या भेद भी होता है यहां पर जातिभेद नहीं है । जहां पर जिस जातिकी कषाय है वहां पर उसी जातिका व्रताभाव-असंयत है। कषाय और असंयमका लक्षणतत्र यन्नाम कालुष्यं कषायाः स्युः स्वलक्षणम् । बताभावात्मको भावो जीवस्यासंयमो मतः॥ ११३६ ॥ अर्थ-जीवके कलुषित भावोंका नाम ही कषाय है यही कषायका लक्षण है। तथा जीवके व्रत रहित मावोंका नाम ही असंयम है । भावार्थ-कषायका स्वरूप गोमट्टसारमें भी इस प्रकार कहा है “ सुहदुःखसुबहुसस्सं कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स, संसारदूरमेरं तेण कसाओत्ति णं ति । सम्मत्तदेससयल चरित्तनहखाद चरण परिणा॥ घादंति वा कषाया चउसोल असंखलोगमिदा" जिस प्रकार कोई किसान एक वीघा, दो वीघा दश वीघा खेतको जोतता है, जोतनेके पीछे उसमें धान्य पैदा करता है । उसी प्रकार यह कषाय तो किसान है, जीवका कर्मरूपी खेत है, उस खेतकी अनन्त संसार हद ( मर्यादा ) है, उस खेतको यह कपायरूपी किसान बराबर जोतता रहता है, फिर उससे सासांरिक सुख दुःखरूपी धान्य पैदा करता है। अर्थात् जो जीवके परिणामोंको हलके समान कषता रहे उसे, कषाय कहते हैं। अथवा सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्र रूप जीवके शुद्ध परिणामोंको जो घाते उसे कषाय कहते हैं । कषायें चार हैं-(१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोम । ये चारों ही क्रमसे चार चार प्रकारके होते हैं उनके दृष्टान्त इस प्रकार हैं-एक तो ऐसा क्रोध जैसे कि पत्थर पर रेखा । एक ऐसा जैसे पृथ्वी पर रेखा । एक ऐसा जैसे धूलिपर रेखा । एक ऐसा जैसे पानीपर रेखा । पत्थर पर की हुई, रेखा गाढ़ होती है, बहुत काल तक तो ऐसी ही बनी रहती है । पृथ्वीपर की हुई उससे कम कालमें नष्ट होनाती है, इसी प्रकार धूलि और जलरेखायें क्रमसे अति शीघ्र मिट जाती हैं । क्रोध कषायका यही भेद क्रमसे नरक, तिर्यक, मनुष्य देवगतियोंमें जीवको लेजाता है। जैसे क्रोधकी तीव्रमन्दादिकी अपेक्षासे चार शक्तियां है उसी प्रकार मान, माया, लोभ की हैं। मानके दृष्टान्त-पर्वत, हही, काठ, वेत । मान कषायको कठोरताकी उपमा दी गई है। पर्वत बिलकुल सीधा रहता है थोड़ा भी नहीं मुड़ता । इसी प्रकार तीव्र मानी सदा पर्वतके समान कठोर और सीधा रहता है, इससे कम दर्नेवाले मानीको हड्डीकी उपमा दी है । हड्डी यद्यपि कठोर है तथापि पर्वतकी अपेक्षा कम है। काठ और वेतमें क्रमसे बहुत कम कठोरता है। ये चारो मान कषायें भी क्रमसे नरकादि गतियोंमें ले जानेवाली हैं। मायाको वक्रता ( कुटिलता-टेदापना-मुड़ा हुआ ) की उपमा

Loading...

Page Navigation
1 ... 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338