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अध्याय
सुबोधिनी टीका।
कुछ सुख दुःख नहीं पहुंचा सकता है क्योंकि उसके परम सहायक मोहनीय कर्मको वे नष्ट कर चुके हैं, अपने सखाके वियोगमें वेदनीय भी सर्वथा क्षीण हो चुका है ' तथापि योगके निमित्तसे अभी तक कर्मोंका आना जाना लगा हुआ है, यद्यपि अब उन कर्मोको आत्मामें स्थान नहीं मिल सक्ता है, स्थान देनेवाली आकर्षण शक्तिको तो वे पहले ही नष्ट कर चुके हैं तथापि योगद्वारके खुले रहनेसे अभी तक वेदनीयके आने जानेकी बाधा सी ( वास्तवमें कुछ बाधा नहीं है ) लगी हुई है । इस प्रकार अधातिया कर्मोने आत्माकी प्रतिजीवी शक्तियोंको x छिपा रक्खा है। और घातिया कर्मोंने इसकी अनुजीवी शक्तियोंको छिपा रक्खा है। उपर्युक्त कथनसे यह बात भली भांति सिद्ध हो जाती है कि आठों ही कमौके उदयसे असिद्धत्व भाव होता है और उनके अभावमें आत्मा सिद्ध हो जाता है। *
+ णट्टाय राय दोसा इंदिवणाणं च केवलिम्हि जदो । तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं ॥
गोमट्टसार। अर्थात् केवली भगवानके (अईन्सके) रागद्वेष सर्वथा नष्ट हो चुका है, इन्द्रियजन्य ज्ञान भी नष्ट हो चुका है, इसलिये उनके साता असाता वेदनीयसे होनेवाला इन्द्रियजन्य सुखदुःख नहीं होता है। x सत्तात्मक गुणत्व रहित-कर्मों के अभावसे होनेवाली अवस्थाको ही प्रतिजीव शक्ति कहते हैं।
* अहवियकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा अहगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिगो सिद्धा।
गोमट्टसार। __ अर्थ-सिद्धों का स्वरूप इस प्रकार है-(१) अष्टकर्मसे रहित (२) वीतरागी-परमशान्त (३) रागद्वेष-मलसे सदाके लिये मुक्त (४) नित्य-फिर संसारमें कभी नहीं लौटनेवाले (५) अष्टगुण सहित (६) कृतकृत्य-निष्क्रिय-सृष्टि के निर्माता नहीं (७) (७) लोकाग्रभागमें निवास करनेवाले । इन विशेषणोंसे परमोंका खण्डन भी होजाता है। पर मतवाले ईश्वरका स्वरूप-मुक्त जीवका स्वरूप इस प्रकार मानते हैं- सदाशिवः सदाकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितं, मस्करी किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिं । क्षणिकं निर्गुणं चैव बुदो योगश्च मन्यतेऽकतकृत्यं तमीशानो मण्डली चोर्ध्वगाभिनम्, अर्थात् शिव मतवाले मुक्त जीव ईश्वरवो सदा कर्म रहित मानते हैं, उसे अनादिसे ही कर्म रहित मानते हैं, परन्तु वास्तवमें ईश्वर ऐसा नहीं है। सभी जीवोंके पहले कर्ममल होते हैं पीछे उनका नाश करनेवाले ईश्वरीय अवस्थाको प्राप्त करते हैं। संसार पूर्वक ही मुक्ति होती है। जो कर्मबन्धनसे छूटता है वही मुक्त कहलाता है इसी बातको प्रकट करनेके लिये सिद्धोंका विशेषण-अष्ट कर्म रहित, दिया है अर्थात् पहले वे कर्मोसे सहित ये पीछे कर्मोंसे छूटे हैं। सांख्य सिद्धान्त मुक्त जीवको सुख रहित मानता है, परन्तु वास्तवमें मुक्त जीवके संसारी जीवोंकी अपेक्षा परम-अलौकिक-अनन्त