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पायी।
दूसरा
लिये सचित त्याग प्रतिमावाला पदार्थोंको अचित्तवनाकर खाता है । हरीको नहीं खाता है, जलको प्रासुक बनाकर पीता है । यद्यपि ऐसा करनेसे वह जीव हिंसा से मुक्त नहीं होता, तथापि जितेन्द्रिय अवश्य हो जाता है । स्वादिष्ट पदार्थोंको अस्वादिष्ट बनाने से इन्द्रियोंकी कसायें कम हो जाती हैं : इन्द्रिय संयम पालनेवाला ही आगे चलकर ठवीं आरंभ त्याग प्रतिमार्गे प्राण संयम भी पालने लगता है । परन्तु संकल्पी हिंसाका त्यागी पहले से ही होता है। आठवीं प्रतिमामें आरंभ जनित हिंसाका भी वह त्यागी हो जाता है । इत्युक्तलक्षणो यत्र संगमो नापि लेशतः * असंयतत्वं तन्नाम भावोस्त्वौदयिकः स च ॥
११२४ ॥
अर्थ ---- ऊपर कहा हुआ दोनों प्रकारका संयम जहांवर लेश मात्र भी नहीं पाला जाता है वहीं पर असंयत भाव होता है, वह आत्माका औदयिक भाव है । शङ्काकारननु वा संयतत्त्वस्य कषायाणां परस्परम् ।
को भेदः स्याच चारित्रमोहस्यैकस्य पर्ययात् ॥ ११२५ ॥ अर्थ - असंयत भाव और कषायों में परस्पर क्या अन्तर है क्योंकि दोनों ही एक चारित्र मोहनीयकी पर्याय हैं । अर्थात् दोनों ही चारित्र मोहके उदयसे होते हैं ?
÷ इन्द्रियों की लालसा घट जानेसे मनुष्य अपना तथा परका बहुत कुछ उपकार कर सक्ता है । अनेक कर्तव्यों में सफलता प्राप्त कर सकता है । परन्तु उनकी वृद्धि होनेसे मनुष्यका बहुत समय इन्द्रिय भोग्य योग्य पदार्थोंकी योजना में ही चला जाता है । तथा विषयासक्तता में वह निज कर्तव्यको भूल भी जाता है । * लेशतः पाठसे यह बात प्रकट होती है कि उक्त दोनों संयन यथाशक्ति जघन्य अवस्था में भी पाले जाते हैं । इसी लिये जो नियम रूपसे पांचवी प्रतिमांमें नहीं हैं वे भी पाक्षिक अवस्था भी अभ्यास रूपसे हरितादिका त्याग कर देते हैं । कुछ नये विद्वान् पांचवी प्रतिमासे नीचे हरितादिके त्यागका विषेध करते हैं, प्रत्युतः हरितादि भक्षणका विधान करते हैं यह उनकी बड़ी भूल है, क्योंकि विधानका कहीं उपदेश नहीं है जितना भी कथन है सब निषेध मुखसे है चाहे वह थोड़े ही अंशोंमें क्यों न हो । पांचवी प्रतिमानें तो हरितादिका त्याग आवश्यक है, उससे नीचे यद्यपि आवश्यक नहीं है तथापि अभ्यास रूपसे उसका करना प्रशस्य ही है। जितने अंशों में भी त्याग मार्ग है उतना ही अच्छा । भगती हैं, यदि वे हरीका पर्वो त्याग करते हैं, उपवासादि धारण करते हैं कन्दमूलका त्याग करते हैं तो ऐसी अवस्था में अवश्य वे शुभ प्रवृत्तिवाले हैं। भले ही वे मन्द ज्ञानी हों परन्तु अनन्त स्थावर जीवोंके वघसे बच जायँग । जितनी भी प्रतिमायें है सभी त्यागकी मर्यादाको आवश्यक बतलाती हैं परन्तु उनसे नीची श्रेणीवाला भी लेश मात्र त्यागी अथवा अभ्यस्त
इसलिये जो पुरुष
या पूर्ण त्यागी भी बन सक्ता है ।