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अध्याय।।
सुबोधिनी टीका।
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चारित्रमोहके भद. तस्माचारित्रमोहश्च तद्भेदाद्विविधो भवेत्।
पुद्गला द्रव्यरूपोस्ति भावरूपोस्ति चिन्मयः॥१०६१॥
अर्थ-इस लिये उसके भेदसे चारित्र मोह दो प्रकार है एक द्रव्य रूप, दूसरा माल न्यरूप चारित्र मोह पुद्गल स्वरूप है और भावरूप चारित्र मोह चैतन्य स्वरूप है । भावार्थ-चारित्रमोह कर्मके उदयसे जो आत्माके चारित्र गुणकी राग द्वेष रूप वैभाविक अवस्था है उसीसे चारित्र मोहनीय कर्मके दो भेद होजाते हैं, एक द्रव्य मोह दूसरा भाष मोह । पौलिक चारित्र मोह द्रव्य मोह है और उसके निमित्तसे होनेवाले आत्माके रागहर भाव, भावमोह है।
द्रव्य मोह" अस्त्येकं मूर्तिमद्रव्यं नाम्ना ख्यातः स पुद्गलः।
वैकृतः मोस्ति चारिमोहरूपेण संस्थितः ॥ १०६२॥ अर्थ-रूप रस गन्ध स्पर्शका नाम मूर्ति है। जिस द्रव्यमें ये चारों गुण पाये जायें से मूर्तिमान द्रव्य कहते हैं, ऐसा मूर्तिमान द्रव्य छहों द्रव्योंमें से एक है और वह पहलके नामसे प्रसिद्ध है। उसी पुद्गलमी एक वैभ विक पर्याय चारित्र मोहरूप है।
पृथ्वीपिण्डसमानः स्थान्मोहः पौगलिकोऽखिलः।।
पुद्गलः स स्वयं नारमा मिथी यन्धी द्वयोरपि ॥ १०६३ ॥
अर्थ-पौद्गलिक जितना भी मोह है सभी पृथ्वी पिण्डके समान है, वह स्वयं पुद्गल है वात्मा नहीं है पौद्गलक द्रव्यमोह और आत्मा इन दोनों का परस्पर बन्ध होता है।
भाव मोहविविधस्यापि मोहस्स पौगलिक कर्मणः।
उदयादात्मनो भावो भाव मोहः स उच्यते ॥ १०६४ ॥
अर्थ-दोनों प्रकारके पगलिक मोहनीय कर्मोके उदयसे आत्माका जो भाव होता है उसे ही भाव मोह कहते हैं। भावार्थ-द्रव्यमोहके उदयसे होनेवाली आत्माकी वैभाविक अवस्थाका नाम ही भाबमोह है।
भाव मोहका स्वरूपजले जम्बालवन्नूनं स भावो मलिनो भवेत् । ... बन्धहेतुः स एव स्थाइदैतश्चाष्टकर्मणाम् ॥ १०६५॥
अर्थ-जलमें जिसप्रकार काई (हरा मल) के जमजानेसे जल मलिन हो जाता है उसी प्रकार वह भाव भी ( रागद्वेषरूप ) मलिन होता है, तथा वही अकेला आओं कोंक