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अध्याय
सुबोधिनी टीका। तत्कथं मूर्छितं ज्ञानं दुःखमेका ततो मतम् । सूत्रं द्रव्याश्रयाः प्रोक्ता सबै निर्गुणा गुणाः॥११०९॥ न ज्ञानादिगुणेषूचैरस्ति कश्चिद्गुणः सुखम् । मिथ्याभावाः कषायाश्च दुःखमित्यादयः कथम् ॥ १११० ॥
अर्थ-क्या ज्ञानादि गुणोंके समान कोई सुख गुण भी है ? उस सुख गुणका ही वैभाविक भाव-दुःख है ! और वह दुःख सुखके विपक्षी . कर्मके उत्यसे होता है। फिर यहां पर मूर्छित ज्ञानको सर्वथा दुःख कैसे कहा गया है ? क्योंकि द्रव्याश्रया निर्गुणा ५ गुणाः । ऐसा सूत्र है, उसका यही आशय है कि जो द्रव्यके आश्रय रहै और जो निर्गुण । हो उन्हें ही गुण कहते हैं । यदि ज्ञानादि गुणोंमें कोई सुख गुण नहीं है तो मिथ्या भाव,
और कषाय इत्यादि दुःख क्यों कहे जाते हैं ? भावार्थ-शङ्काकारका अभिप्राय यह है कि क्या ज्ञानादि गुणोंके समान कोई सुख गुण भी है ? और क्या दुःख उसीकी वैभाविक अवस्था है ! यदि है तो फिर अज्ञान भाव, मिथ्या भाव, कषाय भाव इनको ही दुःख क्यों कहा गया है क्योंकि गुणोंमें गुण तो रहते नहीं हैं जब दुःख सुखकी वैभाविक अवस्था है तो वह मूर्छित ज्ञान, वैभाविक दर्शन, वैभाविक चारित्रमें कैसे रह सकती है ? यदि ज्ञानादि गुणों के समान कोई सुख गुण नहीं है तो फिर मिथ्याभावादिको दुःख किस दृष्टिसे कहा जाता है ?
उत्तरसत्यं चास्ति सुखं जन्तोर्गुणो ज्ञानगुणादिवत् ।
भवेत्तकृतं दुःखं हेतोः कर्माष्टकोदयात् ॥ ११११ ।।
अर्थ-ठीक है, ज्ञानादि गुणों के समान इस जीवका एक सुख गुण भी है, उसीका वैभाविक भाव दुःख है, और वह आठों कर्मोके उदयले होता है। भावार्थ-सुख गुण भी आत्माका एक अनुजीवी गुण है, उस गुणको घात करनेवाला कोई खास कर्म नहीं है जैसे कि ज्ञान, दर्शनादिके हैं किन्तु आठों ही कर्म उसके घातक हैं, आठों कोंके उदयसे ही उस सुख गुणकी दुःखरूप वैभाविक अवस्था होती है। यहां पर यदि कोई शंका करै कि आठों ही कर्मों में भिन्न भिन्न प्रतिपक्षी गुणोंके घात करनेकी x भिन्न २ शक्ति है, फिर उन्हींमें सुखके घात करनेकी शक्ति कहांसे आई ! इसीका उत्तर देते हैं... अस्ति शक्तिश्च सर्वेषां कर्मणामुयात्मिका।
सामान्याख्या विशेषाख्या दैविध्यात्तद्रसस्य च ॥ १११२॥ - अधातिया का प्रतिजीवी गुणोंके पात करनेकी शक्ति है।