Book Title: Panchadhyayi Uttararddh
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakash Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका । मात्माका अनुजीवी गुण है । इसलिये वेदनीय कर्म उसका पातक-विपक्षी नहीं कहा जा सक्ता है । * असंयत भावअसंयतत्वमस्यास्ति भावोप्यौदयिको यतः । पाकाचारित्रमोहस्य कर्मणो लब्धजन्मवान् ॥ १११७॥ . अर्थ-चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाला असंयतत्व भाव भी भात्याका औदयिक भाव है । भावार्थ-चारित्रमोहनीय कर्म आत्माके चारित्र गुणका घाल करता है। चारित्रका नाम ही संयत-संयम है । जब तक चारित्र मोहनीय कर्मका उदय रहता है तबतक आत्मामें संयम नहीं प्रकट होता है। किन्तु असंयम रूप अवस्था बनी रहती है। इसलिये चारित्रमोहके उदयसे होनेवाला असंयत भाव भी आत्माका औदयिक भाव है। इतना विशेष है कि चारित्र मोहनीय कर्मकी उत्तरोत्तर मन्दतासे उस असंयत भावमें भी अन्तर पड़ता चला जाता है । जैसे-चौथे गुणस्थान तक सर्वथा असंयत भाव है * क्योंकि वहां तक अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहता है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय एक देश संयम भी नहीं होने देती। पांचवें गुणस्थानमें एक देश संयम प्रकट हो जाता है। परन्तु वहांपर भी प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होनेसे सकल संयम नहीं होने पाता । छठे गुणस्थानसे दशवें गुणस्थान तक सकल संयम तो प्रकट हो जाता है परन्तु संज्वलन कषायका उदय होनेसे यथाख्यात संयम नहीं होने पाता । यद्यपि बारहवें गुणस्थानमें प्रतिपक्षी कर्मका . * इसी प्रकार मोहनीय कर्म भी सुखका विपक्षी नहीं कहा जा सक्ता है, क्योंकि मोहनीय कर्मका नाश दश गुणस्थानके अन्तमें हो जाता है, यदि मोहनीय कर्म ही उसका विपक्षी हो तो वहीं पर अनन्त सुख प्रकट हो जाना चाहिये, परन्तु अनन्त सुख तेरहवें गुणस्थानमें प्रकट होता है, जब कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ये तीनों कर्म भी नष्ट हो जाते हैं, इसलिये सिद्ध होता है कि चारों ही घातिया कर्मोंमें सुख गुणके घात करनेकी शक्ति है। ऊपर जो आठों ही कमको सुखका विघातक कहा गया है वह आत्माके पूर्ण स्वरूपकी अप्रातिकी अपेक्षासे कहा गया है, वास्तवमें अनुजीवी गुणोंका घात पातिया काँसे ही होता है। हां दशवें गुणस्थान तक मोहनीयका सम्बन्ध होनेसे आठों ही कर्म सुखके विधातक हैं। चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनके साथ कुछ अंशोंमें आत्माका सुख गुण भी प्रकट होता है, वह इसीलिये होता है कि घातिया को मैसे अन्यतम मोहनीयका वहां उपशम अथवा सय अथवा क्षयोपशम हो जाता है। इससे भी यह बात भलीभांति सिद्ध है कि सुखका घातक कोई एक कर्म नहीं है । न्तु साम्मालेत कर्मों की सामान्य शक्ति है। ___ * सूक्ष्म दृष्टिसे पहा में स्वरूपाचरण संयम है और वह अनन्तानुबन्धी कर्मके अभाबसे होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338