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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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बुद्धिपूर्वक राग नहीं होता है । जैसे- मिथ्यादृष्टि शरीरादि भिन्न पदार्थोंमें आत्मत्व बुद्धिसे राग कर सक्ता है परन्तु सम्यग्दृष्टि शरीरादिमें राग अवश्य कर सक्ता है किन्तु आत्मत्व बुद्धिसे नहीं कर सक्ता है । क्योंकि शरीरादिमें आत्मत्वबुद्धि करनेवाला तो केवल * दर्शनमोह है ।
सारांश---
. एवमौदयिका भावाश्चत्वारो गतिसंश्रिताः ।
केवलं बन्धकर्तारो मोहकर्मोदयात्मकाः ॥ १०५६ ॥
अर्थ- - इस प्रकार गतिकर्मके आश्रयसे चार औदयिक भाव होते हैं । परन्तु बन्ध के.. करनेवाले केवल मोहकर्मके उदयसे होनेवाले ही भाव हैं । भावार्थ - विना मोहनीय कर्म के गति कर्मका उदय कुछ नहीं कर सक्ता है, केवल उदयमें आकर खिर जाता है ।
कषाय भाव
कषायाचापि चत्वारो जीवस्यौदयिकाः स्मृताः ।
क्रोधो मानोऽथ माया च लोभश्चेति चतुष्टयात् ॥ १०५७॥ ते चाऽऽत्मोत्तरभेदैश्च नामतोप्यत्र षोडश । पञ्चविंशतिकाश्चापि लोका संख्यातमात्रकाः ॥ १०५८ ॥ अथवा शक्तितोऽनन्ताः कषायाः कल्मषात्मकाः । यस्मादेकैकमालापं प्रत्यन्ताश्च शक्तयः ।। १०५९ ।।
अर्थ- क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें भी जीवके औदयिक भाव हैं ! और उन कषायोंके जितने उत्तर भेद हैं वे सब भी औदयिक भाव हैं । कषायों के उत्तर भेद नामकी अपेक्षासे सोलह भी हैं तथा पच्चीस भी हैं । परन्तु सूक्ष्म दृष्टिसे उनके असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद हैं । अथवा शक्तिकी अपेक्षासे उन कषायों के अनन्त भी.. भेद हैं। क्योंकि एक २ भेदके प्रति अनन्त अनन्त शक्तियाँ हैं । ये सब कषायें पाप रूप.. है । अर्थात् सभी कषायें आत्माके गुणोंका घात करनेवाली हैं । भावार्थ - सामान्य रूपसे क्रोध मान माया लोभ ये कषायों के चार भेद हैं, अनन्तानुबन्धि, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्याक और संज्वलन इन भेदोंकी अपेक्षासे उनके सोलह भेद हैं । अर्थात् इन चारों भेद में क्रोध मान माया लाभ जोड़ देनेसे सोलह भेद हो जाते हैं । इन्हीं में हास्य, रति, अरति, शो भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद इन नौ नोकषयों को जोड़ देने से उनके पच्चीस भेद हो जाते हैं । अन्तर्भेद और शक्तियों की अपेक्षा से उनके असंख्यात लोकप्रमाप और