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पञ्चाध्यायी। है, कि अग्निको शान्त करनेके लिये क्या उसमें लकड़ी डालनेकी आवश्यकता है ! यदि विषय सेवन तृप्तिका मार्ग है तो अनादिकालसे अभी तक क्यों नहीं तृप्ति हो पाती ! इसलिये इनसे जितना जल्दी सम्बन्ध छुड़ाया जाय और इनकी ओर विरक्तता की जाय उतना ही परम सुख समझना चाहिये।
ततबारित्रमोहस्य कर्मणो घुदयाचवम् । ' चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी ॥ १०७९ ॥ .. अर्थ-इसलिये चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाले ये नोकषाय भी चारित्र गुणके वैभाविक भाव हैं। । प्रत्येक विविधान्येव लिङ्गानीह निसर्गतः।
द्रव्यभावधिभेदाभ्यां सर्वज्ञाज्ञानतिक्रमात् ॥ १०८० ॥
अर्थ-सर्वज्ञकी आज्ञा-आगमके अनुसार प्रत्येक लिङ्ग स्वभावसे ही द्रव्य वेद, माव बेद इन भेदोंसे दो दो प्रकार हैं । इन दोनोंका वर्णन पहले श्लोकमें सविस्तर किया गया है।
नाम कर्म-स्वरूपअस्ति यन्नामकमैकं मानारूपं च चित्रवत् । . पौगलिकमचिद्रूपं स्यात्पुद्गलविपाकि यत् ॥ १०८१॥ - अर्थ-आठ कर्मों में एक नाम कर्म है वह चित्रोंके समान अनेक रूपवाला है, अर्थात् जिस प्रकार चित्रकार अपने हस्त कौशलसे अनेक प्रकारके चित्र बनाता है, उसी प्रकार यह नाम कर्म भी अपने अनेक भेदोंसे अनेक आकार बनाता है। शरीर, संहनन, गति, जाति, आङ्गोपाङ्ग आदि सभी रचना इस नामकर्मके उदयसे ही होती है । इसका बहुत बड़ा विस्तार है। नाम कर्म पौद्गलिक है, पुद्गलकी वैभाविक न्यञ्जन पर्याय है । इसीलिये वह मड़ है, और प्रदल विपाकी है* भावार्थ-कुछ कर्म तो ऐसे हैं जिनका पुद्गलमें ही विपाक होता है। अर्थात् शरीरमें ही उनका फल होता है, कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका क्षेत्रमें ही विपाक होता है, अर्थात् उनका उदय तभी आता है जब कि संसारी जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण करनेके लिये जाता हुआ विग्रह गतिमें होता है। कुछ कर्म ऐसे हैं जो भवविपाकी हैं अर्थात् मनुष्यादि पर्यायोंमें ही उनका फल होता है, और का कर्म ऐसे हैं जो जीवविपाकी हैं, अर्थात् उनका जीवमें फल होता है।
* सभी नामकर्म पुद्गल विपाकी नहीं है। २७ प्रतियां उसमें जीव विपाकी भी है, परन्तु अधिक प्रकृतियां पुद्गल विपाकी ही हैं, इसी लिये (बाहुल्यकी अपेक्षासे) उपर्युक कथन है।
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