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पञ्चाध्यायी।
[दूसरी द्रव्य वेदसे भाव वेदमें सार्थकता नहीं आतीत्रिलिङ्गाकारसम्पत्तिः कार्य तन्नामकर्मणः।
नास्ति तद्भावलिङ्गेषु मनागपि करिष्णुता ॥ १०८३ ॥
अर्थ-स्त्रीवेद अथवा पुरुषवेद अथवा नपुंसकवेदके आकारका पाना नाम कर्मका कार्य है। इस आकारकी भावलिङ्गोंमें कुछ भी कार्यकारिता नहीं है। भावार्थ-नाम कर्म केवल द्रव्यवेद-शरीरमें लिङ्गाकृतिको बनाता है, स्त्री पुरुषोंके भावोंमें जो रमण करनेकी वान्छा होती है व भाव वेद कहलाता है। ऐसा भाव वेद नाम कर्मके उदयसे नहीं होता है। जब तक माव वेदका उदय न हो तब तक केवल द्रव्य वेद कुछ नहीं कर सका है, केवल आकार मात्र है। इसीलिये नवमें गुणस्थानसे ऊपर केवल वेदोंका द्रव्याकार मात्र है।
भाव वेदका कारणभाववेदेषु चारित्रमोहकर्माशकोदयः। . कारणं नूनमेकं स्यान्नेतरस्योदयः कचित् ॥ १०८४ ॥
अर्थ-भाववेदोंके होनेमें केवल एक चारित्र मोहकर्मका उदय ही निश्चयसे कारण है, किसी दूसरे कर्मका उदय उनके होनेमें कारण नहीं है।
वेदोंके कार्यरिरंसा द्रव्यनारीणां पुंवेदस्योदयात्किल । नारी वेदोदयावेदः पुसां भोगाभिलाषिता ॥ १०८५ ॥ नालं भोगाय नारीणां नापि पुंसामशक्तितः।
अन्तर्दग्धोस्ति यो भावः क्लीववेदोदयादिव ॥ १०८६ ॥x
अर्थ-पुंवेदके उदयसे द्रव्य स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी वाञ्छा होती है । स्त्री वेदके उदयसे पुरुषोंके साथ भोग करनेकी अभिलाषा होती है। और जो अशक्त सामर्थ्य हीन होनेसे न तो त्रियों के साथ ही भोग कर सक्ता है, और न पुरुषों के साथ ही कर सक्ता है किन्तु दोनोंकी वाञ्छा रखता हुआ हृदयमें ही जला करता है ऐसा भाव नपुंसक वेदके उदयसे होता है।
वेदोंकी सम विषमताद्रव्यलिंगं यथा नाम भावलिंगं तथा कचित् ।
कचिदन्यतमं द्रव्यं भावश्चान्यतमो भवेत् ॥ १०८७॥ ___x संशोधित पुस्तकमें क्लीववेदोदयादिति, पाठ है। इसका कोई अर्थ भी नहीं निकलता है।
के वित्थी व पुमं णउंसओ उहयलिंगविदिरित्तो ।
इटावग्गिसमाणग वेदणगरुओ कलसचित्तो ॥ यह नपुंसकका स्वरूप है।
गोमट्टसार।