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पचाध्यायी ।
[ दूसरा
सारांश-
करते
हुए उसे औदकि
सिद्धमेतन्नु ते भावाः प्रोक्ता येडी गतिच्छलात् । अर्थादौदयिकास्तेपि मोहद्वैतोदयात्परम् ॥ १०५४ ॥ अर्थ - यह बात सिद्ध हो गई कि गतिके बहानेसे जो भाव कहे गये हैं वे भी गति कर्मके साथ उदयमें आनेवाले मोहनीय कर्मके उदयसे औदयिक हैं । भावार्थ - कुछ ऊपर नामकर्मके भेदों में गति कर्मका विवेचन भाव में गिनाया है, और यह बतला दिया है कि नारक, तिर्यग्, मनुष्य, देव इन चारों पर्यायोंमें आत्माके भाव भिन्न २ रीति से असाधारण होते हैं । जैसी पर्याय होती है उसीके अनुसार आत्माकी भाव सन्तति भी होजाती है । अर्थात् जिस पर्याय में यह आत्मा जाता है उसी पर्यायके अनुसार इसके भावोंकी रचना हो जाती है इसलिये गति कर्म औदयिक है । यहां पर किसीने शंका की थी कि गति कर्म तो नाम कर्मका भेद होनेसे अघातिया कर्म है, उसमें आत्मा के भावोंको परिवर्तन करने की योग्यता कहांसे आसक्ती है ? इस शंका उत्तर में यह कहा गया है कि उस गति कर्मके उदयके साथ ही मोहनीय कर्मका भी उदय हो रहा है इसलिये वही आत्मा के भावोंके परिवर्तनका कारण है ? और नारकादि पर्याय उस परिवर्तन में सहायक कारण है, क्योंकि नारकादि भिन्न २ पर्यायोंके निमित्तसे ही भिन्न २ द्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी योग्यता मिलती है और जिस प्रकारकी जहां सामग्री है उसीके अनुसार मोहनीयके उदयसे आत्मा के भावों में परिवर्तन होता है, अर्थात् सामग्री के अनुसार कर्मोदय विशेष रीति से विपच्यमान होता है । इसी - लिये गति कर्मके उदयसे होनेवाले भाव भी औदयिक हैं । इनमें अन्तरंग कारण मोहनीय कर्मका उदय ही समझना चाहिये ।
यत्र कुत्रापि वान्यत्र रागांशो बुद्धिपूर्वकः । सस्याद्वैविध्यमोहस्य पाकाद्वान्यतमोदयात् ॥ १०५५ ॥
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अर्थ -- जहां कहीं भी बुद्धिपूर्वक राग होता है वह दर्शनमोह और चारित्रमोहके पाकसे ही होता है अथवा दोनोंमेंसे किसी एकके पाकसे होता हैं । भावार्थ- जहां पर दर्शनमोहका उदय है वहां पर चारित्रमोहका भी उदय नियमसे रहता है ऐसे स्थल पर दोनों ही बुद्धिपूर्वक रागके कारण हैं, और जहां पर चारित्रमोहका उदय रहता है वहां दर्शनमोहका उदय रहे या न रहे नियम नहीं है, चौथे गुणस्थानसे ऊपर केवल चारित्रमोहका ही उदय है इसलिये वहां केवल चारित्रमोहके उदयसे राग होता है। जहांपर दोनोंसे होता है वहां पर दर्शनमोह आत्माकी मिथ्या बुद्धि करता है । चारित्रमोह राग करता है। चौथे गुणस्थान कर ऊपर के गुणस्थानों में बुद्धिपूर्वक राग तो होता है परन्तु वहां पर मिथ्या