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पञ्चाध्यायी ।
[ दूसरा
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अर्थ - ज्ञान और सुख अ माके गुण हैं इसलिये वे इन्द्रिय और शरीर के विनाभी मुक्त जीवके निरन्तर रहते हैं, इसी विषय में मिथ्यादृष्टि विचार करता है कि यह कहना ठीक है अब ठीक नहीं है । पावार्थ-ज्ञान और सुख आत्माके निज गुण हैं । गुणका कमी नाश नहीं होता है, यदि गुणों का ही नाश हो जाय तो द्रव्यका भी नाश हो जाय, और द्रव्यका नाश होनेसे शूः यताका प्रसंग आवेगा इसलिये गुण पुस- ब्रव्ब सदा टोत्कीर्ण के समान अखण्ड रहता है परन्तु संसारमें ज्ञान और सुखका अनुभव शरीर और इन्द्रियोंके द्वारा ही होता रहता है । यद्यपि इन्द्रियोंसे आत्मीक सुखका स्वाद नहीं भाता है। आत्माका सुख तो आत्मामें ही स्वयं होता है, इन्द्रियां तो सबक हैं इन्द्रियों द्वारा जो सुख होता है वह केवल शुभ कर्मका फलस्वरूप है, तथापि मिथ्यादृष्टि उसी सुखको आत्मीक सुख समझने लगता है, इन्द्रियजन्य ज्ञानको ही यह यथार्थ - प्रत्यक्ष और पूर्ण ज्ञान समझता है । और उसी समझ के अनुसार वह यह भी कपना करता है कि विना इन्द्रिय और शरीर के सुख और ज्ञान हो ही नहीं सके हैं। इसीलिये वह मुक्तात्माओंके ज्ञान, सुखमें सन्दह करत है कि बिना शरीर और इन्द्रियोंके मुकास्माओं के ज्ञान और सुख जो बताया है वह हो सक्ता है या नहीं ? वास्तवमें इन्द्रियजन्य ज्ञान सीमाबद्ध और परोक्ष होता है, जहांपर इन्द्रियोंसे रहित - अतीन्द्रिय ज्ञान होता है नहीं पर उसमें पूर्णता और निर्मलता आती है । मुक्त जीवों के जो ज्ञान होता है वह अतीन्द्रिय होता है । इसी प्रकार उनके जो सुख होता है वह इन्द्रियोंसे सर्वमा विलक्षण होता है, इन्द्रियजन्य जो सुख है वह कर्मोदय जनित है इसलिये दुःख ही है । मिध्यादृष्टि दुःखको ही सुख समझता है ।
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और भी
स्वतः सिद्धानि द्रव्याणि जीवादीनि किलेति षट् । प्रोक्तं जैनागमे यत्तत्स्याद्वा नेच्छेदनात्मवित् ॥ १०४९ ॥
अर्थ — जैन शास्त्रों में स्वतः सिद्ध जीवादिक छह द्रव्य कहे गये हैं वे हो सक्ते हैं बा नहीं ? ऐसी भी आशंका वह आत्मस्वरूपको नहीं जाननेवाला मिथ्यादृष्टि करता है । और भी
नित्यानित्यात्मकं तत्वमेकं चैकपदे च यत् ।
स्वादाविरुद्धत्वात् संशयं कुरुते कुदृक् ॥ १०५० ॥ अ-पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, एक ही पदार्थमें नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म रहते हैं । इस विषय में भी निथ्या दृष्टि संशय करता है कि एक पदार्थ में नित्यत्व और निस्स्व दो धर्म रह सक्ते हैं या नहीं ! वह समझता है कि निस्वस्व और अनित्यत्व धर्म