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अध्याय
सुबोधिनी टीका ।
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अनेक भेद हैं। किसी जीवके अधिक मतिज्ञान पाया जाता है किसीके कम पाया जाता है, जितने भी मतिज्ञान धारी हैं सभी कुछ न कुछ भेदको लिये हुए हैं । इसी प्रकार सभी कमके अनेक भेद हैं और उन्हीं के निमित्तसे उनके प्रतिपक्षी गुणों में न्यूनाधिकता पाई जाती है । प्रकृत में मिथ्यात्वके असंख्यात भेद तो बतलाये गये, अब उसीके शक्तिकी अपेक्षासे अनन्त भेद बतलाये जाते हैं
अथवा शक्तितोऽनन्तो मिध्याभावो निसर्गतः । यस्मादेकैकमालापं प्रत्यनन्ताश्च शक्तयः । १०४२ ॥
अर्थ — अथवा शक्तिकी अपेक्षासे वह मिध्यात्व परिणाम स्वभावसे अनन्त प्रकार है क्योंकि एक एक आलापके प्रति अनन्त र शक्तियां होती हैं । भावार्थ - प्रत्येक आलाप अनंतानंत वर्गणाओंका समूह है और प्रत्येक वर्गणामें अनन्तानन्त परमाणुओं का समूह रहता है, इसलिये प्रत्येक परमाणु में प्रतिपक्षी गुणको घात करने की शक्ति होनेसे उस कर्मके तथा उसके प्रतिपक्षी गुणके भी अनंत भेद हो जाते हैं, तथा अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अभेद हैं ।
तथा----
जघन्यमव्यमोत्कृष्टभावैर्वा परिणामिनः । शक्तिभेदात्क्षणं यावदुन्मज्जन्ति पुनः पृथक् ॥१०४३॥ कारुं कारुं स्वकार्यत्वाइन्धकार्य पुनः क्षणात् । निमज्जन्ति पुनश्चान्ये प्रोन्मज्जन्ति यथोदयात् ॥ १०४४ ॥ शक्तियां हैं वे सब प्रतिक्षण परिणमनशील हैं, उत्कृष्ट भाव द्वारा परिणमन करती हुई भिन्न कार्य कर करके
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अर्थ-उन कर्मों की जितनी भी इसलिये वे यथायोग्य जघन्य मध्यन तथा रूपसे प्रगट होती हैं । और बन्ध शीघ्र ही शान्त हो जाती हैं 1 उनके शान्त होते ही दूसरी शक्तियां अपने उदयानुसार प्रगट होजाती हैं । उन शक्तियोंका बन्ध करना ही एक कार्य है । भावार्थ- जो कर्म जिस भावसे उदय होता है अर्थात् जघन्यरूI पसे अथवा उत्कृष्टरूपसे जितनी भी फलदान शक्तिको लेकर उदयमें आता है वह उसी रूपसे अपना फल देता है साथ ही नवीन कर्मेका बन्ध करता है, इतना कार्य कर वह नष्ट होजाता है और दूसरा कर्म उदय में आने लगता है । इसी प्रकार वह भी अपनी अपनी
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शक्ति के अनुसार फल देकर तथा नवीन कर्मेका वध करके नष्ट हो जाता है, इसी क्रमसे
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पहले २ बाँधे हुए कर्म उदयमें आते हैं और नवीन २ कर्म बँधते रहते हैं, यह क्रम तब
तक बराबर रहता है जबतक कि कारणभूत मोहनीय कर्म शान्त नहीं होता है ।
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