________________
सुबोधिनी टीका ।
मिथ्यात्वका कार्य —
कार्य तदुदयस्योच्चैः प्रत्यक्षात्सिद्धमेव यत् ॥ स्वरूपानुपलब्धिः स्यादन्यथा कथमात्मनः ॥ १०३५ ॥
अध्याय |
[GG
अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उदयका कार्य प्रत्यक्षसे ही सिद्ध है कि आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति नहीं होने पाती । यदि दर्शनमोहनीय कर्मका उदय न होता तो अवश्य ही आत्माके निज स्वरूपकी उपलब्धि हो जाती । इसलिये आत्माके स्वरूपको नष्ट करना ही दर्शनमोहनीय कर्मका कार्य है ।
स्वरूपानुपलब्धिका फल
स्वरूपानुपलब्धौ तु बन्धः स्यात्कर्मणो महान् ।
अत्रैवं शक्तिमात्रं तु वेदितव्यं सुदृष्टिभिः ॥१०३६॥
अर्थ - आत्माके स्वरूपकी अनुपलव्धि होनेसे कर्मों का तीब्र बन्ध होता है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टियोंको जान लेना चाहिये कि दर्शनमोहनीय कर्ममें ऐसी शक्ति है ।
प्रसिद्धैरपि भास्वद्भिरलं दृष्टान्तकोटिभिः
अत्रेत्थमेवमेवं स्यादलध्या वस्तुशक्तयः ॥१०३७॥
अर्थ - प्रसिद्ध तथा ज्वलन्त ( पुष्ट ) ऐसे करोंड़ो दृष्टान्त भी यदि दिये जांय तो भी यह बात सिद्ध होगी कि मोहनीय कर्ममें इसी प्रकारकी शक्ति है, जिस वस्तुमें जो शक्ति हैं। वह अनिवार्य है । मोहनीय कर्ममें आत्माके स्वरूपको नष्ट करनेकी शक्ति है, इस शक्तिको उस कर्मसे कोई दूर नहीं कर सक्ता है । क्यों कि भिन्न २ पदार्थोंकी भिन्न २ ही शक्तियां होती हैं और जो जिसका स्वभाव है वह अमिट है ।
शंका
सर्वे जीवमया भावा दृष्टान्तो बन्धसाधकः ।
एकत्र व्यापकः कस्मादन्यत्राडव्यापकः कथम् ॥ १०३८ ॥
अर्थ — जब कि जीवोंके सभी भाव बंधके साधक हैं और इसमें दृष्टांत भी मिलता है, जैसे क्रोध मान मतिज्ञान आदि । फिर यह नियम जिसप्रकार अन्यभावों में व्याप्त होकर रहता है. मी प्रकार स्वरूपोपलब्धिमें क्यों नहीं व्याप्त होकर रहता ?
उत्तर
अथ तत्रापि केषाञ्चिव संज्ञिनां बुद्धिपूर्वकः । मिथ्याभावो गृहीताख्यो मिथ्यार्थाकृतिसंस्थितः ॥ १०३९॥
अर्थ -- किन्हीं २ संज्ञी जीवोंके बुद्धिपूर्वक-गृहीत मिथ्यात्व होता है, वह पदार्थोंमें