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पश्चाध्याया।
- होतो औदयिक भावों में नहीं गिनाया जाता, इसका कारण भी यही है कि क्षायोपशमिक जा भी भात्याका मुण है, जितने अंशोंमें भी ज्ञान प्रकट होमाता है यह आत्माका गुण ही है और जो आत्माका गुण है वह औदयिकमाव हो नहीं सकता, क्योंकि उदय तो कोका ही होता है, कहीं आत्माके गुणोंका उदय नहीं होता है। इ-लिये कमौके उदयसे होनेवाली आत्माकी अज्ञान अवस्थाको ही अज्ञानभान कहते हैं वही अज्ञान औदयिक है। जो भाव ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है वह क्षायोपशमिक भाव है । इसलिये ही कुमति, कुश्रुत और कुअवधिको क्षायोपशमिक भावों में शामिल किया गया है ।
सारांशएतावतास्ति यो भावो दृङ्मोहस्योदयादपि । पाकाचारित्रमोहस्य सर्वोप्योदयिकः स हि ॥१०२४ ॥
अर्थ-इस कथनसे यह बात भी सिद्ध हुई कि जो भाव दर्शन मोहनीयके उदयसे होता है और जो भाव चारित्र मोहनीयके उदयसे होता है वह सभी औदयिक है।
तथा--- न्यायादप्येवमन्येषां मोहादिधातिकर्मणाम् ।
यावाँस्तत्रोदयाज्जातो भावोस्त्यौदायको खिलः ॥१०२५ ॥ , ___ अर्थ---इसी प्रकार और भी मोहको आदि लेकर जितने घातिया कर्म हैं उन सबके उदयसे जो आत्माका भाव होता है वह सब भी न्यायानुमार औदायिक भाव है।
विशेषतत्राप्यस्ति विवेकोऽयं श्रेयानत्रोदितो यथा।
वैकृतो मोहजो भावः शेषः सर्वोपि लौकिकः ॥ १०२६ ॥
अर्थ-ऊपर कहे हुए कथनमें इतना समझ लेना और अच्छा है कि घातिया कोंमें मोहनीय कर्मके उदयसे जो भाव होता है वही वैकृत (वैभाविक) भाव है। बाकी सभी कौके उदय से जो भाव होता है वह लौकिक है। भावार्थ-वास्तवमें जो भाव मोहनीय कर्मके उदयसे होता है वही विकारी है । वही भाव आत्माकी अशुद्धताका कारण है, उसीसे सम्पूर्ण कोका बन्ध होता है और उसीके निमित्तसे यह आत्मा अशुद्ध रूप धारण करता हुआ अनन्त संसारमें भ्रमण करता रहता है, ब कीके कर्म अपने प्रतिपक्षी गुणको ढकते मात्र हैं। न तो वे कर्मबन्ध नही करने में समर्थ हैं और न उस नातिकी अशुद्धता ही क ते हैं। ...
स यगऽनादिसन्तानात् कर्मणोऽच्छिन्नधारया। चारित्रस्य दशश्च स्यान्मोहस्यास्त्युदयाचितः ॥ १०२७ ॥ .
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