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पञ्चाध्यायी ।
दूसरा
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विस्तार है । कभी मिथ्यात्वोदय के साथ होनेसे कु- अवधिज्ञान ( विभंगज्ञान ) भी हो जाता है यह भी “अपरागति” का आशय है । अवधिज्ञानके समान मन पर्यय ज्ञानके भी अनेक भेद हैं । इतना विशेष है कि चाहे ऋजुमती मन पर्यय ज्ञान हो, चाहे विपुलमती हो, छठे गुणस्थानसे नीचे होता ही नहीं है विपुलमती मनःपर्यय तो एकवार होकर छूटता भी नहीं है, वह चरम शरीरीके होता हुआ भी अप्रतिपाती है अर्थात् फिर गिरता नहीं, नियमसे बारहवें गुणस्थान तक जाता है । हां ऋजुमतीवाला गिर भी जाता है। बहुत से मनुष्य ऐसी शंका करते हैं कि ऋजुमती मन:पर्यय ज्ञान ईहामतिज्ञान पूर्वक होता है और ईहामतिज्ञान इंद्रियजन्य ज्ञान है इसलिये यह भी इन्द्रियजन्य हुआ । ऐसी शंका करनेवालों को यह जान लेना चाहिये कि ईहा मतिज्ञान वहां पर केवल बाह्यमें आपेक्षिक है, वास्तवमें ऋजुमती मनःपर्यय तो मनमें ठहरी हुई बातका साक्षात्कार करता है, इन्द्रियजन्य ज्ञान पदार्थका प्रत्यक्ष नहीं कराता है । मन:पर्यय ज्ञानमें तो पदार्थका आत्म प्रत्यक्ष हो जाता है इसलिये उक्त शंका निर्मूल है । मन:पर्यय ज्ञान क्षेत्रकी अपेक्षा ढाई द्वीप तक ही जान सक्ता है आगे नहीं । द्रव्यकी अपेक्षा अवधिज्ञानके विषयभूत पदार्थके अनन्तवें भाग जान सक्ता है । मन:पर्ययं ज्ञानावरण कर्मके भेदों की अपेक्षासे मन:पर्यय ज्ञानके भी अनेक भेद हो जाते हैं, परन्तु अवधिज्ञान की तरह इसमें विध्यापन नहीं आता है ।
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मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमेतन्मात्रं सदातनम् ।
स्याद्वा तरतमैर्भावैर्यथा हेतूपलब्धिसात् ॥ १०१८ ॥
अर्थ -- मतिज्ञान और श्रुनज्ञान ये दोनों तो इस जीवके संसारावस्थामें सदा ही रहते हैं, इतना विशेष है कि जैसा निमित्त कारण मिल जाता है वैसे ही इन ज्ञानों में भी, तरतम 'भाव होता रहता है ।
ज्ञानं यथावदर्थानामस्ति ग्राहकशक्तिमत् ।
क्षायोपशमिकं तावदस्ति नौदयिकं भवेत् ॥ १०१९ ॥
अर्थ - पदार्थों के ग्रहण करनेकी शक्ति रखनेवाला जितना भी ज्ञान है वह सब क्षायोपशमिक ज्ञान है, औदयिक नहीं है ।
सु-अवधि और कु-अवधि—
अस्ति द्वेषावधिज्ञानं हेतोः कुतश्चिदन्तरात् ।
ज्ञानं स्यात्सम्यगवधिरज्ञानं कुत्सितोऽवधिः ॥ १०२० ॥ अर्थ - किसी कारणवश अवधिज्ञानके दो भेद हो जाते हैं । सम्यक् अवधिको ज्ञान
कहते हैं तथा मिथ्या-अवधिको अज्ञान कहते हैं । भावार्थ - ज्ञानसे तात्पर्य सम्यग्ज्ञानका