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अध्याय
सुबोधिनी टीका ।
। १६७
गुणोंके घात कस्नेकी शक्ति नहीं रखते हैं तो भी विवक्षावश* अपनी कर्मत्व, शक्ति रखते ही हैं । भावार्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय ये चार कर्म घातिया हैं, और वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र ये चार अघातिया हैं । घातिया कर्म तो साक्षात् आत्माके गुणों का घात करते ही हैं परंतु अघातिया कर्म आत्माके गुणों का घात नहीं करते हैं, किन्तु घातिया कर्मों के सहायक अवश्य हैं । तथा अरहन्त भगवानको विना अघातिया कर्मों के नष्ट हुए मुक्तिका लाभ नहीं हो पाता, इसलिये अघातिया कर्म कर्मत्व, शक्ति अवश्य रखते हैं ।
ज्ञानावरण-
एवमर्थवशान्नूनं सन्त्यने के गुणाश्चितः ।
गत्यन्तरात्स्यात्कर्मत्वं चेतनावरणं किल ॥ १००४ ॥
अर्थ -- इस प्रकार प्रयोजनवश आत्मा के अनेक गुण कल्पना किये जा सकते हैं अर्थात् यदि कमों के मूल भेद आठ ही रक्खे जायें तो आत्मामें आठ कमसे आच्छादितें सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन वीर्य सूक्ष्म अवगाहन अगुरुलघु अव्यावाध ये आठ गुण कल्पना किये जाते हैं । यदि कर्मों के एकसौ अड़तालीस या उससे भी अधिक भेदोंकी अपेक्षा की जाय तो कम भेदानुसार आत्मा के अधिक गुण कल्पना किये जाते हैं जैसे कि ज्ञानावरण के पांच भेद होनेसे ज्ञानके भी मविज्ञान श्रुतज्ञान आदि पांच भेद मान लिये जाते हैं इसी प्रकार आत्मगुणोंकी होनाधिक कल्पनासे कमों में भी हीनाधिकता मानी जाती है । जैसे यदि चेतना गुण ज्ञान दर्शन इन दो भेदोंकी पृथक् पृथक् कल्पना न करके केवल चेतना गुणकी ही • अपेक्षा की जाय तो उस गुणका प्रतिपक्षी कर्म भी चेतनावरण एक ही माना जायगा और फिर ज्ञानावरण दर्शनावरणको अलग अलग मानने की आवश्यकता न होगी ।
दर्शनावरण
दर्शनावरणेप्येष क्रमो ज्ञेयोस्ति कर्मणि ।
आवृतेरविशेषाद्वा चिद्गुणस्यानतिक्रमात् ।। १००५ ।।
अर्थ — यही क्रम दर्शनावरण कर्ममें भी जानना चाहिये जिस प्रकार चेतना आत्माका गुण है और उसको आवरण करनेवाला कर्म चेतनावरण कहलाता है उसी प्रकार दर्शन भी आत्माका गुण है और उसको आवरण करनेवाला कर्म भी दर्शनावरण कहलाता है । दर्शन मोहनीय---
एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः
संमोहयति यत्कर्म दृङ्मोहाख्यं तदुच्यते ॥ १००६ ॥
* अघातिया कर्म यद्यपि अनुजीवी गुणोंका घात नहीं करते हैं fat अवश्य घात करते हैं, यही विवक्षाका आशय विदित होता है ।
तथापि प्रतिजीवी गु