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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका
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सारांशएतावदत्र तात्पर्य यथा ज्ञानं गुणश्चितः।
तथाऽनन्ता गुणा ज्ञेया युक्तिस्वानुभवागमात् ॥ १०१२॥ - अर्थ यहांपर इतना ही तात्पर्य है कि जिस प्रकार आत्माका ज्ञान गुण है उसी प्रकार अनन्त गुण हैं । ये सभी गुण युक्ति, स्वानुभव और आगमसे सिद्ध हैं। भावार्ययहांपर अन्यान्य अनन्तगुणोंकी सिद्धि में ज्ञान गुणका दृष्टान्त दिया गया है, इसका तात्पर्य यह है कि आत्माके अनन्तगुणोंमें एक ज्ञान गुण ही ऐसा है जो कि स्पष्टतासे प्रतीत होता है, अन्यान्य गुणोंका विवेचन भी इसी ज्ञान गुणके द्वारा किया जाता है। सभी गुण निर्विकल्पक हैं, एक ज्ञान गुण ही सविकल्पक है । इसीलिये पहले कहा जा चुका है कि "ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः सल्लक्षणाङ्किताः।सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रकाः । ततो वक्तमशक्यत्वान्निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लखं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते" अर्थात् ज्ञानके विना सभी गुण सत्तामात्र हैं, चाहे सामान्य गुण हो चाहे विशेष गुण हो सभी निर्विकल्पक हैं, निर्विकल्पक वस्तु कही नहीं जा सक्ती है इसलिये ज्ञानके द्वारा उसका निरूपण किया जाता है। इस कथनसे यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि सब गुणोंसे ज्ञान गुणमें विशेषता है और यह बात हरएकके अनुभवमें भी आजाती है कि ज्ञान गुण ही प्रधान है इसीलिये ज्ञानको दृष्टान्त बनाकर इतर गुणों का उल्लेख किया गया है।
___एक गुण दूसरे गुणमें अन्तर्भूत नहीं हैन गुणः कोपि कस्यापि गुणस्थान्तर्भवः कचित् । नाधारोपि च नाधेयो हेतु पीह हेतुमान् ॥ १०१३ ॥
अर्थ-कोई भी गुण कभी किसी दूसरे गुणमें अन्तर्भूत नहीं हो सक्ता है अर्थात दूसरे गुणमें मिल नहीं जाता है, और न एक गुण दूसरे गुणका आधार ही है और न आधेय ही है, न हेतु ही है और न हेतुमान् (साध्य) ही है।
किन्तु सवापि स्वात्मीयः स्वात्मीयः शक्तियोगतः।
नानारूपा ह्यनेकेपि सता सम्मिलिता मिथः ॥ १.१४ ॥ अर्थ-किन्तु सभी गुण अपनी अपनी भिन्न २ शक्तिके धारण करनेसे भिन्न भिन्न अनेक हैं, और वे सब परस्पर पदार्थके साथ तादात्म्य रूपसे मिले हुए हैं। भावार्थ-इन दोनों इलोकोंमें गुणोंकी भिन्न २ बतलाते हुए भी पदार्थके साथ उनका सम्मेलन बताया गया है, इसका तात्पर्य यह है कि वास्तवमें पदार्थ और गुण भिन्न २ वस्तु नहीं है, जो