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अध्याय। सुबोधिनीटीका।
२६५ यथा धाराधराकारैः गुण्ठितस्थांशुमालिनः। . . नाविर्भावः प्रकाशस्य इत्यादेशात स्वतोपि वा ॥ ९९४ ॥
अर्थ-यद्यपि द्रव्यदृष्टि से सूर्यका प्रकाश दा सूर्यके साथ है उसका कभी अभाव नहीं हो सक्ता है तथापि मेघोंसे आच्छादित होनेपर सूर्यका प्रकाश छिप अवश्य जाता है। भावार्थ-उसी प्रकार ज्ञानादि गुण सदा आत्माक साथ हैं अथवा आत्मस्वरूप हैं उनका कभी नाश नहीं हो सका है तथापि ज्ञानावरणादि कर्मोके निमित्तसे वे ढक अवश्य जाते हैं।
अज्ञान औदायक नहीं हैयत्पुनज्ञानमज्ञानमस्ति रूढिवशादिह । . तन्नौदयिकमस्त्यस्ति क्षायोपशमिकं किल ॥९९५॥
अर्थ-जो ज्ञान ही रूढिवश अज्ञान कहा जाता है वह औदयिक नहीं है किन्तु निश्चयसे क्षायोपशमिक है। भावार्थ-यहांपर अज्ञानसे तात्पर्य मन्दज्ञानसे है। प्रायः मन्दज्ञानीको अज्ञानी अथवा मन्द ज्ञानको अज्ञान कह दिया जाता है, वह अज्ञान औदयिक भाव नहीं है किन्तु क्षायोपशमिक भाव है तथा मिथ्यादृष्टिका ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है वह भी क्षायोपशमिक ही है। क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है। जो अज्ञानभाव औदयिक भावोंमें गिनाया गया है वह कर्मके उदयकी अपेक्षासे है ।
अथास्ति केवलज्ञानं यत्तदावरणावृतम् । स्वापूर्वार्थान् परिच्छेतुं नालं मूर्छितजन्तुवत् ॥ ९९६ ॥
अर्थ-ज्ञानावरण कौमें एक केवल ज्ञानावरण कर्म भी है, वह केवलज्ञानावरण कर्म आत्माके स्वाभाविक केवलज्ञान गुण को ढक लेता है। आवरणसे ढक जानेपर वह ज्ञान मूर्छित पुरुषकी तरह अपने स्वरूप और अनिश्चित पदार्थोंको जाननेके लिये समर्थ नहीं रहता है।
अथवायहा स्यादवधिज्ञानं ज्ञानं वा स्वान्तपर्ययम् । नार्थक्रियासमर्थ स्यात्तत्तदावरणावृतम् ॥ ९९७ ॥
अर्थ-अथवा अवधिज्ञान वा मनःपर्ययज्ञान ये भी अपने २ आवरकसे जब आवृत होते हैं अर्थात् ढके जाते हैं तब अक्रिया करनेमें अर्थात् पदार्थोंके जानने में समर्थ नहीं रहते हैं। ..
मतिज्ञान श्रुतज्ञानं तत्तदावरणावृतम् । .... यद्यावतोदयांशेन स्थितं तावदपन्हुतम् ॥ ९९८ ॥