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सुबोधिनी टीका ।
भाव हिंसासे हानि -
लोकासंख्यातमात्रास्ते यावद्रागादयः स्फुटम् ।
हिंसा स्यात्संविदादीनां धर्माणां हिंसनाच्चितः ॥ ७५४ ॥ अर्थ - - असंख्यात लोक प्रमाण रागादिक वैभाविक भाव जब तक रहते हैं तब तक आत्मज्ञानादिक गुणोंकी हिंसा होनेसे आत्माकी हिंसा होती रहती है । इसलिये ये भाव ही हिंसा के कारण तथा स्वयं हिंसारूप हैं ।
अध्याय ।
इसीका खुलासा
अर्थाद्रागादयो हिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः ।
अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल । ७५५ ॥
अर्थ - अर्थात् रागादिक भाव ही हिंसा है, अधर्म है, व्रतच्युति है, और रागादिकका त्याग ही अहिंसा है, धर्म है अथवा व्रत है ।
परका रक्षण भी स्वात्म रक्षण है । -
आत्मेतराङ्गिणामङ्गरक्षणं यन्मतं स्मृतम् ।
तत्परं स्वात्मरक्षायाः कृतं नातः परञ्च यत् ॥ ७५६ ॥
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अर्थ - - आत्मासे भिन्न दूसरे प्राणियोंके शरीरकी रक्षा जो कही गई है वह भी केवल अपनी ही रक्षा के लिये है । इससे भिन्न नहीं है। भावार्थ- परजीवों की रक्षाके लिये जो उद्योग किया जाता है वह शुभ परिणामोंका कारण है, तथा जो सर्वारंभरहित निवृत्त परिणाम हैं वे शुद्धभावोंके कारण हैं । शुभभाव और शुद्धभावोंसे अपने आत्माका ही कल्याण होता है इस लिये पर रक्षणको स्वात्मरक्षण ही कहना चाहिये ।
रागादिक ही आत्मघात हेतु हैं
सत्सु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कर्मणां बलात् ।
तत्पाकादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो वधः ॥ ७५७ ॥
अर्थ — रागादिक भावोंके होने पर अवश्य ही कर्म बन्ध होता है, और उस कर्म बन्धके पाकसे आत्माको दुःख होता है इसलिये रागादिक भावों ( परहिंसा परिणाम ) से अपने आत्माका घात होता है यह बात सिद्ध हो चुकी ।
उत्कृष्ट व्रत
ततः शुद्धोपयोगी यो मोहकर्मोदयादृते ।
चारित्रापरनामैतद् व्रतं निश्चयतः परम् ॥ ७५८ ॥ अर्थ - इस लिये मोहनीय कर्मके उदयसे रहित जो उसीका दूसरा नाम चारित्र है और वही निश्चयसे उत्कृष्ट व्रत है ।
उ० २५
आत्माका शुद्धोपयोग है