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पञ्चाध्यायी। है। अर्थात् जिस गतिमें पहुंचता है वहांकी द्रव्य क्षेत्र काल भाव सामग्रीके अनुसार ही अपने भावोंको बनाता है।
दृष्टान्त
यथा तिर्यगवस्थायां तबद्या भावसन्ततिः। तत्रावश्यं च नान्यत्र तत्पर्यायानुसारिणी ॥ ९.७९ ॥
अर्थ-- जिस प्रकार तिर्यञ्च अवस्थामें जो उसके योग्य भावसन्तति है बह उस पर्यायके अनुसार वहां अवश्य होती है, तिर्यञ्च अवस्थाके योग्य जो भाव सन्तति है बह वहीं पर होती है अन्यत्र नहीं होती।
इसी प्रकारएवं दैवेऽथ मानुष्ये नारके वपुषि स्फुटम् ।
आत्मीयात्मीयभावाश्च सन्त्यसाधारणा इव ॥ ९८० ॥
अर्थ-इसी प्रकार देवगति, मनुष्यगति, नरकगतिमें भी अपनी २ गतिके योग्य भाव होते हैं । वे ऐसे ही होते हैं जैसे असाधारण हों। भावार्थ-जिस पर्यायमें भी यह जीव जाता है उसी पर्यायके योग्य उसे वहां द्रव्य क्षेत्र काल भावकी योग्यता मिलती है, और उसी सामग्री के अनुसार उस जीवके भाव उत्पन्न होते हैं । जैसे भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले' जीवके वहांकी सुखमय सामग्री के अनुसार शान्तिपूर्वक सुखानुभव करनेके ही भाव पैदा होते हैं । कर्मभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके असि मस्यादि कारण सामग्रीके अनुसार कर्म (क्रिया ) पूर्वक जीवन बितानेके भाव पैदा होते हैं । तथा जिस प्रकारका क्षेत्र मिलता है उसी प्रकारकी शरीर रचना आदि योग्यता भी मिलती है । इसलिये भावोंके सुधार और बिगाड़में निमित्त कारण ही प्रमुख है।
शङ्काकारननु देवादिपर्यायो नामकर्मोदयात्परम् ।
तस्कथं जीवभावस्य हेतुः स्याद्घातिकर्मवत् ॥ ९८१ ॥
अर्थ-देवादिक गतियां केवल नामकर्मके उदयसे होती हैं। जब ऐसा सिद्धान्त है तब क्या कारण है कि नाम (देवादिगतियां) कर्म घातिया कोंके समान जीवके भावोंका हेतु समझा जाय ? भावार्थ-ऊपर कहा गया है कि जैसी गति इस जीक्को मिलती है उसीके अनुसार इसके भावोंकी सृष्टि भी बनती है । इस विषयमें शङ्काकारका कहना है कि भावोंके परिवर्तनका कारण तो घातिया कर्म ही हो सक्ते हैं, नाम कर्म तो अधतिया है उसमें भावों के परिवर्तन करनेकी सामर्थ कहांसे आई ?