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पञ्चाध्यायी।
दूसरी
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अथवायहा सिद्धं विनायासात्स्वतस्तत्रोपर्वहणम्।
ऊर्ध्वमूर्ध्वगुणश्रेण्यां निर्जरायाः सुसंभवात् ॥ ७८४ ॥ . अर्थ-अथवा सम्यग्दृष्टिके किसी खास यत्नके स्वतः ही उपब्रहण गुण सिद्ध है। क्योंकि ऊपर ऊपर गुणश्रेणी (परिणामोंकी उत्तरोत्तर विशुद्धतामें) रूपसे उसके निर्जराका होना अवश्यंभावी है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके असंख्यात गुणी निर्जरा होती रहती है और वह उत्तरोत्तर श्रेणी क्रमसे बढ़ी हुई है।
अवश्यंभाविनी चात्र निर्जरा कृत्स्नकर्मणाम् । प्रतिसूक्ष्मक्षणं यावदसंख्येयगुणक्रमात् ॥ ७८५॥
अर्थ-उपद्रहण गुणधारीके सम्पूर्ण कर्मोकी निर्जरा अवश्य होगी, क्योंकि प्रतिक्षण उसके असंख्यात गुणी २ निर्जरा होती ही रहती है।
कमाके क्षयों आत्माकी विशुद्धिकी वृद्धिन्यायादायातमेतदै यावतांशेन तत्क्षतिः ।
वृद्धिः शुद्धोपयोगस्य वृडेवृद्धिः पुनः पुनः॥ ७८६ ॥
अर्थ--यह बात न्याय प्राप्त है कि जितने अंशमें कोका क्षय होजाता है उतने ही . अंशमें शुद्धोपयोगकी वृद्धि होजाती है। उधर कर्मोंके क्षयकी वृद्धि होती जाती है इधर शुद्धोपयोगकी वृद्धि होती जाती है । यह वृद्धि बराबर बढ़ती चली जाती है। ___ यथा यथा विशुद्धः स्याद् वृद्धिरन्तः प्रकाशिनी।
तथा तथा हृषीकाणामुपेक्षा विषयेष्वपि ॥७८७॥
अर्थ-जैसी जैसी विशुद्धिकी वृद्धि अन्तरंगमें प्रकाश डालती है, वैसी वैसी ही आत्माकी इन्द्रियोंके विषयोंमें उपेक्षा होती जाती है। .
क्रियाकाण्डको बढ़ाना चाहियेततो भूम्नि क्रियाकाण्डे नात्मशक्तिं स लोपयेत् । किन्तु संवर्धयेन्नूनं प्रयत्नादपि दृष्टिमान् ।। ७८८॥
अर्थ--इसलिये बहुतसे क्रियाकाण्डमें अपनी शक्तिको नहीं छिपाना चाहिये । किन्तु यत्नपूर्वक उसे बढ़ाना चाहिये यह सम्यग्दृष्टिका कर्तव्य है।
सारांशउपहणनामापि गुणः सद्दर्शनस्य यः। गणितो गणनामध्ये गुणानां नागुणाय च ॥ ७८९ ॥ "