________________
२०६
पञ्चाध्यायी।
दूसरों
हैं कि ऐसा उनका सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या है। क्या हिंसारूप अधर्मके सेवन करनेसे धर्मप्राप्ति हो सकती है ? हिंसादि नीच कार्योंका स्वर्गफल कभी नहीं हो सकता है। हिंसा करनेसे परिणामों में संक्लेशकी ही वृद्धि होगी उससे पाप बन्ध होगा इसलिये अधर्मसेवनका फल उत्तरोत्तर अधमकी वृद्धि है। धर्मका हेतु अधर्म कभी नहीं हो सकता है ।
प्रतिसूक्ष्मक्षणं यावद्धेतोः कर्मोदयात्स्वतः। . धर्मो वा स्वादधर्मो वाप्येष सर्वत्र निश्चयः ॥ ७९४ ॥
अर्थ-प्रति समय जब तक कर्मका उदय है तब तक धर्म और अधर्म दोनों ही हो सकते हैं ऐसा सर्वत्र नियम है । भावार्थ-जब कर्मोदय मात्रसे भी अधर्म-पापबन्ध होता है तब अधर्मसेवनसे तो अवश्य ही अधर्म होगा, इसलिये यागादि अधर्मसेवनसे धर्मप्राप्तिकी कल्पना करना मीमांसकोंकी सर्वथा भूल है।
स्थितिकरणके भेदतस्थितीकरणं देधाऽध्यक्षात्स्वापरभेदतः। स्वात्मनः स्वात्मतत्त्वेऽर्थात्परत्वे तु परस्य तत् ॥ ७९५ ॥
अर्थ-वह स्थितिकरण अपने और परके भेदसे दो प्रकारका है। अर्थात् अपने आत्माके पतित होनेपर अथवा पतित होनेके सन्मुख होनेपर अपने आत्मामें ही पुनः अपने आपको लगा लैना इसे स्व-स्थितीकरण कहते हैं । और दूसरे आत्माके धर्मसे पतित होनेपर पुनः ' उसे उसी धर्ममें तदवस्थ कर देना इसे पर स्थितीकरण कहते हैं।
स्वस्थितीकरणका खुलासातत्र मोहोदयोद्रेकाच्च्युतस्यात्मस्थितेश्चितः।
भूयः संस्थापनं स्वस्य स्थितीकरणमात्मनि ॥ ७९६ ॥ .
अर्थ-मोहोदयके उद्रेकवश अपनी आत्म परिस्थिति ( धर्मस्थिति ) से पतित अपने आत्माको पुनः आत्म परिस्थितिमें लगा देना इसीका नाम स्वस्थितीकरण है।
इसीका स्पष्टीकरणअयं भावः क्वचिदैवाद्दर्शनात्स पतत्यधः । बजत्यूचं पुनर्दैवात्सम्यगारुह्य दर्शनम् ॥ ७९७ ॥
अर्थ-उपर कहे हुए कथनका खुलासा इस प्रकार है-कभी कर्मोदयकी तीव्रतासे वह सम्यग्दृष्टि दर्शनसे नीचे गिरता है। फिर दैववश सम्यग्दर्शनको पाकर उपर चढ़ता है।
अथवाअथ कचिद्यथाहेतुदर्शनादपतन्नपि । ... भावशुद्धिमधोधोंशैर्ध्वमूर्ध्व प्ररोहति ॥ ७९८ ॥